Wednesday, September 17, 2008

उर्दू के आदि-कवि वली दक्कनी

वली का शुमार उर्दू-कविता की राह तैयार करने वाले शायरों में होता है। उर्दू शायरी की वो राह जो बाद में शाहराह बनी। वली के पहले ख़ुसरो, रहीम और रसखान जैसे भारतीय-कवियों का ज़्यादातर कलाम या तो फ़ारसी में मिलता है या हिंदी में। लेकिन वली ने एक अलग रंग इख़्तियार किया। वली की भाषा उनके समकालीन-कवियों की ज़बान से अलग जगमगाई। उनके भाव फ़ारसी कविता का लुत्फ़ देते थे तो कहन- नई ताज़गी। धीरे-धीरे फ़ारसी के इश्क़ का जादू, तेसी ज़बान में रंग जमाने लगा और वली की शोहरत ने उनके सिर पर उर्दू के आदि-कवि होने का सेहरा बंधवा दिया। वली अपनी ज़िंदगी में मशहूर हुए और मरने के बाद अमर हो गए। वली की शायरी ग़ज़लों, रुबाइयों, क़तों, क़सीदों और मसनवी से सजी हुई है।

हुआ है ख़त्म जब यूं दर्द का हाल,
था ग्यारह सौ में इक्कीसवां साल।

कहा हातिफ़ ने यूं तारीख माकूल,
'वली' का है सख़ुन हक़ पास मक़बूल।

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता,
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।

सलोने साँवरे पीतम तेरे मोती की झलकाँ ने,
किया अवदे-पुरैय्या को खऱाब आहिस्ता आहिस्ता।


शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी औरंगाबाद के रहने वाले थे। किताबों में झांकें तो उनका जीवन-काल 1668 से 1744 के दरमियान दर्ज है। वली का बचपन औरंगाबाद की मिट्टी में सना रहा तो बीस बरस की उम्र में उन्होंने अहमदाबाद का रुख़ कर लिया जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। किताबों से हवाला मिलता है कि 1722 के क़रीब वली दिल्ली चले आए।

दिल 'वली' का ले लिया दिल्ली ने छीन,
जा कहो कोई मुहम्मद शाह सूं।

वली का ये शे'र इस बात की तस्दीक़ है कि वो न सिर्फ़ दिल्ली में लंबे अर्से तक रहे बल्कि यहां कि तबज़ीब से ख़ासे मुतआस्सिर भी हुए। जब वली दिल्ली पहुंचे, सुख़न-नवाज़ों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। महफ़िलें सजने लगीं, शायर चहकने लगे, लेकिन जो आवाज़ निकलती वो वली की आवाज़ से मेल खाती नज़र आती। अब तक वली के दिल पर दिल्ली और दिल्ली के दिल पर वली का नाम रौशन हो चुका था। दिल्ली में वली को वो सम्मान मिला कि शाही दरबार में हिंदी के जो पद गाए जाते थे उनकी जगह वली की ग़ज़लें गाई जाने लगीं। मगर फ़ितरतन यायावर वली ने देर तक किसी एक जगह कयाम नहीं किया बल्कि दूर-दूर का सफ़र करते रहे। गुजरात उन्हें सबसे ज़्यादा अज़ीज़ था। वही (अहमदाबाद में) 1744 में उन्होंने आख़िरी सांस ली। क़ब्र अहमदाबाद बनी, मगर अफ़सोस गुजरात के कुछ तथाकथित 'चाहने वालों' ने गुजरात के दंगों की आड़ में इस सच्चे महबूब की क़ब्र को भी नेस्तनाबूत कर दिया। मुझे बहादूर शाह ज़फ़र का ये शे'र याद आया-

कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए,
दो गज ज़मीं भी न मिली कू-ए-यार में।

गुजरात दंगों के दौरान मुझसे एक मतला हुआ था, जो बाद में कुछ शे'रों का साथ पाकर ग़ज़ल बन गया। अनीश प्रधान को जी ग़ज़ल इतनी पसंद आई की उन्होंने इसकी एक प्यारी-सी धुन बना डाली, और अपने अगले एल्बम के लिए शुभा मुद्गल जी ने इसे अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर लिया-

आसमानों में ताकता क्या है,
तेरी धरती पे अब बचा क्या है।

दूर तक ख़्वाब की मज़ारें हैं,
सूनी आंखों में ढूंढता क्या है।

गुज़रे लम्हों की धूल उड़ती है,
इस हवेली में अब रखा क्या है।

चांदनी आज किस लिए नम है,
चांद की आंख में चुभा क्या है।

जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,
सब उसी का है आपका क्या है।

वो सज़ा दे के दूर जा बैठा,
किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है।

Friday, September 5, 2008

शुरुआत ब्लॉग की...

वादे के मुताबिक़ अमीर ख़ुसरो के बाद वली पर लिखा जाना था मगर मेरे अग्रज-कवि भाई अशोक चक्रधर आदतन अपना हर काम पूरी शिद्दत से करते हैं, फिर चाहे वो इंटरनेट पर हिंदी का बोलबाला देखने का जुनून हो, जयजयवंती की साहित्यिक मासिक गोष्ठियां हों या फिर अपने किसी 'डियर' की पुस्तक का विमोचन या 'ब्लॉगार्पण' अशोक जी का काम पूरे मन का काम होता है. इस बार उन्होंने अपने इस डियर का 'ब्लॉगार्पण' भी धूमधाम से कराया. जिसका गवाह बना दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर का भरा-पूरा गुलमोहर. तो सोचा कि क्यों न ये लम्हे भी आपके साथ बांटता चलूं.

दरअस्ल 'ब्लॉगर' बनने का इंफ़ेक्शन भी अशोक जी की तरफ़ से ही मुझ तक आया, इलाज ज़रूरी था सो इस मर्ज़ के हकीम बने भाई पीयूष पांडे जिन्होंने मुझे itzmyblg.com से जोड़ा. पीयूष जी न जाने क्यों मुझे बहुत कुछ मान बैठे हैं. मेरे ब्लॉग को आशा ने बड़े मन से तैयार किया. आशा, पीयूष जी की टीम की सिपहसालार है और उन लोगों में है जिनकी लगन और क़ाबलियत की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. सो इन सबका दिल से शुक्रिया.

अब शुक्राना उस शख़्सियत का जिनकी अहमियत, मेरी ज़िंदगी में किसी दुआ से कम नहीं है. मेरी बड़ी बहन शुभा मुदगल. शुभा दीदी को सोचते ही डॉ. बशीर बद्र का एक शे'र कुछ यूं याद आता है-

गले में उनके ख़ुदा की अजीब बरकत है,
वो बोलती हैं तो इक रौशनी-सी होती है.

इस ब्लॉग में कविता का सफ़र 12वीं सदी से शुरू हो रहा है और हम अपनी शिनाख़्त की कोशिश कर रहे हैं. उन जड़ों को तलाश रहे हैं जिन पर हमारी तहज़ीब का भरा-पूरा दरख़्त खड़ा है. संगीत की दुनिया में शुभा दीदी अंडरस्कोर रिकॉर्ड्स के ज़रिए ये मुहिम बरसों से चला रही हैं. तो उनसे बेहतर और कौन हो सकता था जो कविता में इस संकल्प के लिए मेरी पीठ पर हाथ रखता, मुझे हौसला देता. अपनी मसरूफ़ियत के बावजूद वो आईं और उन्होंने ब्लॉग रिलीज़ किया. फ़िज़ा में दुआएं गूंजीं और मेरा संकल्प मज़बूती की एक और सीढ़ी चढ़ गया. मेरा वो गीत जो शुभा दीदी की आवाज़ मे ज़िंदा है, यहां वही पेश कर रहा हूं. 'ब्लॉगार्पण' की तस्वीर के साथ.

आओ सोचें ज़रा...
हमने क्या-क्या किया

सांसें यूं ही गईं
क्या मिला, कुछ नहीं?
हम जहां से चले
आ गए फिर वहीं
दिल ने जो भी कहा
हमने क्या वो सुना?
आओ सोचें ज़रा...

कोई हमसे अलग
जाएगा भी किधर
वक़्त भी आएगा
शर्त ये है मगर
अपनी आवाज़ में
कौन देगा सदा?
आओ सोचें ज़रा...

भूल कर चाहतें
छीन कर राहतें
बांट कर नफ़रतें
खींच कर सरहदें
हाथ क्या आएगा
साथ क्या जाएगा?
आओ सोचें ज़रा...

इस वादे के साथ कि अगली मुलाक़ात वली की शायरी के साथ होगी. आमीन.