Tuesday, October 27, 2009

सिलसिला ग़ज़ल का...

और इस तरह एक ग़ज़ल का सिलसिला, और पूरा हुआ...

यार, सुना है अंबर ने सिर फोड़ लिया दीवारों से,
आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से.

लफ़्ज़ों की लच्छेबाज़ी पर हमको कब विश्वास रहा,
लेकिन आप कहां समझे थे, दिल की बात इशारों से.

मन में पीड़ा, आंख में आंसू, कभी-कभी ज़ख़्मों के फूल,
ऐसे तोहफ़े ख़ूब मिले हैं, अवसरवादी यारों से.

दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.

दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.

आपकी दुआओं का शुक्रिया.

Friday, October 2, 2009

दफ़ीना जो हाथ लगा...

कभी-कभी कुछ शे'र दफ़ीने की तरह हाथ लगते हैं. चमकते हैं, झिलमिलाते हैं. लेकिन उनकी क़ीमत का एहसास नहीं जागता. ऐसे ही तीन शे'र महीनों से ज़हन में गड़े पड़े थे. 30 सितम्बर को जबलपुर में जब ये शे'र, कवि भाई प्रदीप चौबे को सुनाए तो उन्होंने कान ऊमेठ कर कहा- 'अबे.. क्यों दबाए रखे हो इन्हें, जल्दी से ग़ज़ल मुकम्मल करो, तीनों शेर ज़ोरदार हैं.' शायरी में प्रदीप जी की बारीक नज़र से कौन वाक़िफ़ नहीं है. मैं तो यहां तक मानता हूं कि 'हास्य-कवि' के रूप में उनकी पहचान किसी दुर्घटना से कम नहीं. वर्ना ग़ज़ल पर उनकी पकड़, उनकी राय ऐसी, जैसे कोई उस्ताद मेहरबां हो जाए. तो हौसला-अफ़्ज़ाई की इसी रोशनी का हाथ थामे कल, बापू और शास्त्री जी के जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर आईसीसीआर, दिल्ली द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में जब ये अशआर पढ़े तो यक़ीन कीजिए वो दाद मिली कि भाई प्रदीप चौबे का सबक़ याद आ गया. ग़ज़ल तो मुकम्मल हो जाएगी, फ़िलहाल शे'र समात फ़रमाएं-

कल रात सुना है अंबर ने, सिर फोड़ लिया दीवारों से,
आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से.

दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.

दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.

शुक्रिया प्रदीप भाई.