Wednesday, April 20, 2011

ग़ज़ल का नया सिरा

'वो लड़की जब भी मिलती है ये आंखें भीग जाती हैं।' यह एक मिस्रा क्या हो गया, अज़ाब हो गया। नए-प्राचीन मित्रों तक, जिसे भी सुनाया, सबने बातें सुनाईं। एक बेबाक दोस्त तो यहां तक कह गए कि - 'अब ऐसे मिस्रे सुनाएंगे.? अमां भीड़ में बह कर ऐसे कमज़ोर शेर कहने से बेहतर है वैसा कुछ कहो जिसके लिए थोड़े-बहुत जान लिए गए हो।' अक़्ल रौशन हुई तो बात भी समझ में आ गई। दरअस्ल चमकते हुए चंचल शब्दों के पीछे का सच अक्सर कुछ और ही होता है, चहरा देख कर बहक जाओ तो रूह तक चोट लगती है मगर सलाम उन सरपरस्तों और दोस्तों की मुहब्बत को जिन्होंने भटकने से पहले राह दिखा दी। गिरने से पहले संभाल लिया। नए सिरे से ग़ज़ल कही, यह नया सिरा आपकी दुआओं को सौंप रहा हूं, संभालिएगा -

तुम्हारे पास आता हूं तो सांसे भीग जाती हैं,
मुहब्बत इतनी मिलती है के' आंखें भीग जाती हैं।

तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बरसात जैसी है,
वो जब भी बात करता है तो बातें भीग जाती हैं।

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो सांसें भीग जाती हैं।

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं।

तेरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है,
तेरी रहमत की बारीश से मुरादें भीग जाती हैं।

आपका ही आलोक