tag:blogger.com,1999:blog-76456916033387249262024-02-07T11:15:10.819+05:30Aalok ShrivastavBorn on 30th December 1971 in a small town of
Madhya PradeshIndiblogshttp://www.blogger.com/profile/09707909884476756113noreply@blogger.comBlogger26125tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-21728195890412536702012-07-24T20:21:00.002+05:302012-07-24T20:22:26.437+05:30The Sunday Indian<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXOwLDPeLZzq7hqCSykTeAXFXbAY4LHGcIUX-Gt5af89z-BZqoz285cgvtM_Bdn4gSaA4q1_cCBW1D4zLCq76AnKF_jPDhnTdRkdfKLkNBl4T4z0je3pYijxk0Q6CWfqrzPe54pyYwmmrl/s1600/Aalok+Shrivastav+Interview.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="211" sda="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjXOwLDPeLZzq7hqCSykTeAXFXbAY4LHGcIUX-Gt5af89z-BZqoz285cgvtM_Bdn4gSaA4q1_cCBW1D4zLCq76AnKF_jPDhnTdRkdfKLkNBl4T4z0je3pYijxk0Q6CWfqrzPe54pyYwmmrl/s320/Aalok+Shrivastav+Interview.jpg" width="320" /></a></div>
</div>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com197tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-52303972216902097952012-05-07T18:02:00.001+05:302012-05-07T18:04:06.717+05:30इंदौर की एक भीगी हुई शाम<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX3UJvajWa8xXYe615zTPw8QB2ptzRHVWuxL298DelpxdfhF9L9RUTpjRG2zsDhkKJuQIJcGs54umGFkzQ2IbKwiUcfzbCaR_NB-2_UG6ZEFZjqGkT48IX9RZzh74n2M-slzPl0EUVoUvS/s1600/BP423723-large%255B1%255D.jpg" imageanchor="1" style="margin-left:1em; margin-right:1em"><img border="0" height="320" width="168" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX3UJvajWa8xXYe615zTPw8QB2ptzRHVWuxL298DelpxdfhF9L9RUTpjRG2zsDhkKJuQIJcGs54umGFkzQ2IbKwiUcfzbCaR_NB-2_UG6ZEFZjqGkT48IX9RZzh74n2M-slzPl0EUVoUvS/s320/BP423723-large%255B1%255D.jpg" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAVBp1ebJ-EwAr5VltEtjUCGLrwpUl2wCtjcBlgX61wIY6E37XwdZCwwqd7oKYpnMa6Qsd-FTxtUQJvDDyWx_zCTDQHPJzHO5YhDfZdntPtgm6mDiuCfCKfKwUgIW505k8w4-PpjS8BcQk/s1600/D30394834%255B1%255D.jpg" imageanchor="1" style="margin-left:1em; margin-right:1em"><img border="0" height="201" width="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiAVBp1ebJ-EwAr5VltEtjUCGLrwpUl2wCtjcBlgX61wIY6E37XwdZCwwqd7oKYpnMa6Qsd-FTxtUQJvDDyWx_zCTDQHPJzHO5YhDfZdntPtgm6mDiuCfCKfKwUgIW505k8w4-PpjS8BcQk/s320/D30394834%255B1%255D.jpg" /></a></div>
<b>वो अपनों की बातें, वो अपनों की ख़ूबू,
हमारी ही हिंदी, हमारी ही उर्दू।
</b>
यह शेर शमशेर बहादुर सिंह जी का है। उन्हीं के नाम से पढ़ा भी गया था। किंतु हमारे पत्रकार-मित्र शमशेर जी का नाम दर्ज करना भूल गए।aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-42441828404286770002012-03-20T05:34:00.020+05:302012-03-20T22:09:06.808+05:30शुक्रिया शुभा दीदी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTQtsxJcZgumIWeiOu1SXtBcE91-8mzMntUcfJeDqHFaX2xHgsrHZ5lKi5rOD7DIXPMdKIXHSekos9vaLnBuyAVmYI80cc-owmKjRQf37u9sVpor_EGJBdgO3vEpZS2dPgTynIzDpCNFFJ/s1600/Anoushka_Traveller.jpg"><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 303px; FLOAT: left; HEIGHT: 300px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5721778163928347154" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTQtsxJcZgumIWeiOu1SXtBcE91-8mzMntUcfJeDqHFaX2xHgsrHZ5lKi5rOD7DIXPMdKIXHSekos9vaLnBuyAVmYI80cc-owmKjRQf37u9sVpor_EGJBdgO3vEpZS2dPgTynIzDpCNFFJ/s320/Anoushka_Traveller.jpg" /></a>यूं शुक्रिया बहुत छोटा लफ़्ज़ है उनके लिए। कुछ लोगों की दुआओं का, स्नेह और विश्वास का तिलिस्म ऐसा होता है जो आपको फ़र्श से अर्श पर ला खड़ा करता है। अपनी शुभा दीदी (शुभा मुद्गल) उन्हीं में एक हैं।
<br />
<br />सितार के सरताज पंडित रवि शंकर जी की बेटी अनुष्का शंकर जी का नया एलबम Traveller रिलीज़ हुआ है। यूएस से दुनिया भर में रिलीज़ हुए <span style="font-size:0;"></span>Traveller का ट्रैक नं. 9 : Ishq आपके दोस्त ने लिखा है।
<br /><span style="font-size:0;"></span>
<br /><span style="font-size:0;"></span>15वीं शताब्दी में फ़ारसी के बड़े कवि हुए- जामी। ''जामी के एक क़तए - 'इश्क़' का आमफ़हम ज़बान में काव्य अनुवाद किससे कराया जाए?'' जब अनुष्का जी ने ये सवाल हमारी शुभा दीदी से पूछा तो उन्होंने झट से मुझ जैसे नासमझ का नाम आगे कर दिया। ऐसा वो अक्सर करती रहती हैं। चुनौतियां पैदा करना और फिर उन चुनौतियों की कामयाबी के लिए दिल खोल के दुआएं देना, कोई शुभा दीदी से सीखे।
<br /><span style="font-size:0;"></span>
<br />जामी ने अपनी ज़बान में इश्क़ की इबादत कुछ यूं की है -
<br /><span style="font-size:0;"></span>
<br />जाम ज़मज़मय-ज़े-पा-ए-ता-सर हमे इश्क़,
<br />हक़्क़ा के: बे-अहदा नयायम बैरुन,
<br />बर उदे नवाख़्त यक ज़मज़म-ए-इश्क़,
<br /><span style="font-size:0;"></span>अज़ अहद-ए-हक़ गोज़ारी यकदम-ए-इश्क़.
<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span>
<br />फ़ारसी के एक बड़े आलिम-फ़ाज़िल की सोहबत उठाई। उनसे जामी के इस क़तए का भाव पूछा-समझा और फिर जो काव्य अनुवाद हुआ उसका चेहरा कुछ इस तरह बना -
<br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong>
<br /><strong>ये इश्क़ क्या हुआ है, ख़ुद इश्क़ हो गया हूं,</strong>
<br /><strong>ख़ुद में ही रम गया हूं, ख़ुद में ही खो गया हूं,</strong>
<br /><strong>तन-साज़ हो गया हूं, मन-राग हो गया हूं,</strong>
<br /><strong>कभु करके कोई देखे, जो इश्क़ हो गया हूं.</strong>
<br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><span style="font-size:0;"></span>
<br />संजीव चिमल्गी जी हमारे दौर के स्थापित शास्त्रीय गायक हैं। उन्होंने ये गीत गाया है। इस लिंक के ज़रिए गीत सुनिए और अच्छा लगे तो मेरी तरह आप भी ज़रूर कहिए - शुक्रिया शुभा दीदी। शुक्रिया अनुष्का जी।
<br /><span style="font-size:0;"></span>
<br /><span style="font-size:0;"></span>Song on Youtube :
<br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=B6uJTHpeyQo&feature=related">http://www.youtube.com/watch?v=B6uJTHpeyQo&feature=related</a>
<br /></span></span></span>
<br />Album :
<br /><a href="http://www.deutschegrammophon.com/html/special/shankar-traveller/tracklist.html">http://www.deutschegrammophon.com/html/special/shankar-traveller/tracklist.html</a>
<br /><span style="font-size:0;"></span>
<br />Ishq
<br />Music by Javier Limón, Anoushka Shankar, Sanjeev Chimmalgi
<br />Lyrics by Jami (15th century, Farsi language)
<br />Poetic Translation by Aalok Shrivastav
<br />Anoushka Shankar - Sitar
<br />Sanjeev Chimmalgi - Voice (song)
<br />Aditya Prakash - Voice (intro and outro)
<br />Piraña Spanish - Percussion ·
<br />Tanmoy Bose - Tabla
<br />Kenji Ota - Tanpura
<br />aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-53066249684567881642011-12-01T20:50:00.019+05:302011-12-02T06:52:28.981+05:30यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjF3YXhCZP19a4ecju2aIqWCWE1Ecw4qm2paz2SetOYoSdRjLs01rIIKdS9_KtiGUODKW84ORK-Ubmo6juWr_hvFMX5OIX-7LTTl4z3eusgEvv3ZbQFk7MJTBptwF5LrGO8z4OvbP0Ur2Ua/s1600/adam-bhaskar+copy.jpg"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 320px; DISPLAY: block; HEIGHT: 149px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5681192601868803218" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjF3YXhCZP19a4ecju2aIqWCWE1Ecw4qm2paz2SetOYoSdRjLs01rIIKdS9_KtiGUODKW84ORK-Ubmo6juWr_hvFMX5OIX-7LTTl4z3eusgEvv3ZbQFk7MJTBptwF5LrGO8z4OvbP0Ur2Ua/s320/adam-bhaskar+copy.jpg" /></a>यादों के पर्दे लहराते रहते हैं। सुबह-सुबह जब आंखें खोलीं तो सर्दी में ठिठुरता बचपन याद आ गया। बचपन, जो हम जैसे क़स्बाइयों के साथ पंद्रह-सोलह बरस तक रहता है।<br /><span style="font-size:0;"></span><br />ऐसे ही सर्द दिनों में अपना विदिशा कुछ ज़्यादा रचनात्मक हो जाता था। सर्दियों में साहित्यिक सरगर्मियां बढ़ जाती थीं, चौक-चौराहों पर कवि-सम्मेलन-मुशायरे जी उठते थे। जब-जब ऐसा मौक़ा आता हम अम्मा का शॉल लपेटे सबसे पहले जाकर, पहली सफ़ में डट जाते थे। एक-एक कवि-शायर को सुबह तक ऐसे सुनते जैसे फ़ज्र की नमाज़ इन्हीं के हक़ में अदा करनी हो।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />ऐसी ही एक रात में आगे की क़तार पकड़े बैठे हम, बार-बार हैरत से उस ओर देख रहे थे जहां सजे-धजे कवियों की क़तार के छोर पर, खांटी गांव के लिबास में एक दद्दू बैठे थे। 'अबे जे कोन है?' साथ आए दोस्त ने बुदबुदाकर हमसे पूछा और हमने हुमक कर यही सवाल पडौसी से पूछ लिया। पास जो बैठा था, ज़हीन था, और कवि-सम्मेलनों-मुशायरों का हमसे बड़ा मुरीद जान पड़ रहा था। बोला - अदम गोंडवी।<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>'अबे जे हैं अदम गोंडवी? लगते तो किसी गांव-देहात के सरपंच हैं।' दोस्त ने जुमला उछाला मगर अदम गोंडवी का नाम सुनते ही हमारे ज़हन में उस ग़ज़ल के सारे शे'र सरसराहट की तरह तैर गए, जो तब हाल में ही कहीं पढ़ी थी । आंखें इस ख़ुशी से चमक उठीं कि हम अदम गोंडवी के सामने बैठे हैं कि हम आज अदम गोंडवी को रूबरू सुनेंगे।<br /><span style="font-size:0;"></span><strong><em><span style="font-size:0;"></span></em></strong><br /><strong><em>काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में,</em></strong><br /><strong><em>उतरा है रामराज विधायक निवास में।<span style="font-size:0;"> </span></em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:0;"></span></em></strong><br /><strong><em>पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत, </em></strong><br /><strong><em>इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में। </em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:0;"></span></em></strong><br /><strong><em>आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह, </em></strong><br /><strong><em>जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में। </em></strong><br /><br /><strong><em>पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें, </em></strong><br /><strong><em>संसद बदल गयी है यहां की नख़ास में। </em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:0;"></span></em></strong><strong><em><span style="font-size:0;"></span></em></strong><br /><strong><em>जनता के पास एक ही चारा है बगावत, </em></strong><br /><strong><em>यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।</em></strong><br /><span style="font-size:0;"></span><br />वाक़ई, यादों के पर्दे लहराते रहते हैं। सुबह-सुबह जब आंखें खोलीं तो सर्दी में ठिठुरता बचपन याद आ गया। पहली बार अदम दद्दू को अपने सामने देख कर जो सरसराहट पैदा हुई थी वही सरसराहट मित्र चण्डीदत्त शुक्ल का लेख पढ़ कर एक बार फिर होने लगी। बचपन में अदम को सुनने से लेकर, उनके साथ कई-कई मंचों पर कविता सुनाने, साथ आने-जाने और वक़्त बिताने के कितने ही मंज़र आंखों में एक साथ तैर गए।<br /><br />आम इंसानी ज़िंदगी की जद्दोजहद को ग़ज़ल बनाने वाले हम सबके प्यारे अदम दद्दू अस्पताल में ज़िंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं। ज़हन पर अजीब सी फ़िक्र तारी हो गई। अभी कुछ रोज़ पहले ही तो ऑफ़िस आए थे, सबसे मिले थे। दिल्ली के हिंदी भवन में भले-चंगे दिखे थे। फिर अचानक ये क्या हुआ?<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>फ़ोन घनघनाया तो पता लगा पुराना नंबर भी बदल गया है। नया नंबर तलाशा। चण्डीदत्त से ही नया नंबर मिला। दोपहर तक अदम दद्दू की आवाज़ से मुख़ातिब हुए तो सांसों की रफ़्तार क़ाबू में आई। आदाब के बाद उधर से दद्दू की आवाज़ ठनठनाई - 'जीयो प्यारे। हम ठीक हैं। फ़िक्र थी, सो अब टल गई। जल्दी मिलेंगे।'<br /><span style="font-size:0;"></span><br />मिलना ही होगा दद्दू क्योंकि आप जैसे क़लमकार दुनिया को कम ही मिलते हैं। आप जैसों को पढ़-सुन कर कई नस्लों के ज़हन खुलते हैं। कई फसलें पका करती हैं, नई क़लमें जवां होती हैं। मिलना ही होगा दद्दू क्योंकि अभी रामराज को विधायक निवास से बाहर लाना है। बग़ावत का परचम भ्रष्ट-फ़ज़ा में लहराना है। आपकी शख़्सियत और कविता का मतलब, दुनिया को अभी कुछ और समझाना है। 'यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।'aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-21737845980267174702011-10-14T11:05:00.005+05:302011-10-14T22:01:07.903+05:30ऐसे भी जाता नहीं कोई...<img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 223px; FLOAT: left; HEIGHT: 259px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5663217796246474802" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJ-VeV2WaWV8An1X_xArj1TCNT3z2I4bIdtJ7D2MLiCVq63oOG0SRos6hdghRLh3PKfY13BbFTOIEWWZvq2KeIzCM_uqU7ZTSC9yiL8QvfnJt0PlDSmS56bwTDjOx3V5BlzvGokN0TamIe/s400/jagjit.jpg" /><strong>मुंबई से लौटकर...<br /></strong><br />जबसे जगजीत गए तब से क़ैफ़ी साहब के मिसरे दिल में अड़े हैं - ‘रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई, तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई।’ और दिल है कि मानने को तैयार नहीं। कहता है - 'हम कैसे करें इक़रार, के' हां तुम चले गए।'<br /><br />'24, पुष्प मिलन, वार्डन रोड, मुंबई-36.' के सिरहाने से झांकती 11 अक्टूबर की सुबह। अपनी आंखों की सूजन से परेशान थी। इस सुबह की रात भी हम जैसों की तरह कटी। रो-रो कर।<br /><span style="font-size:0;"></span><br />सूरज को काम संभाले कोई दो घंटे गुज़र चुके थे। जगजीत जी के घर 'पुष्प मिलन' के सामने गाड़ियों का शोर मचलने लगा, मगर चेहरों की मायूसी, आंखों की उदासी और दिलों के दर्द पर कोई शोर, कोई हलचल, कोई हंगामा तारी नहीं हो पा रहा था। जिस आंख में झांकों, वही कह रही थी - 'ग़म का फ़साना, तेरा भी है मेरा भी।'<br /><span style="font-size:0;"></span><br />चेहरों की बुझी-इबारत पढ़ता-बांचता, पैरों में पत्थर बांधे मैं जैसे-तैसे दूसरे माले की सीढ़ियां चढ़ पाया। ग़ज़ल-गायिकी का जादूगर यहीं सो रहा था। '24, पुष्प मिलन' का दरवाज़ा खुला था। भीतर से जगजीत की जादुई आवाज़ में गुरुबानी महक रही थी। म्यूज़िक रूम का कत्थई दरवाज़ा खोला तो सफ़ेद बर्फ़ की चादर में लिपटा आवाज़ का फ़रिश्ता सो रहा था । मुझे देखते ही विनोद सहगल गले लग गए और सिसकते हुए बोले - 'थका-मांदा मुसाफ़िर सो रहा है, ज़माना क्या समझ के रो रहा है।' मगर दिल इस दर्द से आंसूओं में बदल गया कि दुनिया के ज़हनो-दिल महकाने वाली एक मुक़द्दस आवाज़ ख़ामोश सो गई है। अब कोई चिट्ठी नहीं आने वाली। अब प्यार का संदेस नहीं मिलने वाला। अब दुनिया की दौलतों और शोहरतों के बदले भी बचपन का एक भी सावन नहीं मिलने वाला। न काग़ज़ की कश्ती दिखने वाली और न बारिश का पानी भिगोने वाला। अब न ग़ज़ल अपनी जवानी पर इतराने वाली और न शायरी के परस्तार मखमली आवाज़ के इस जादूगर से रूबरू होने वाले।<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>'हमें तो आज की शब, पौ फटे तक जागना होगा / यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ।' किसी सितारे को टूटते देखना कभी। आसमान के उस आंचल को पलटकर कर देखना, जहां से वो सितारा टूटा है। उस टूटे हुए सितारे की जगह झट से कोई दूसरा तारा ले लेता है। जगमगाने लगता है उस ख़ला में, जहां से टूटा था कोई तारा। मगर चांद को ग़ायब होते देखा कभी? उसकी जगह अमावस ही आती है बस। अमावस तो ख़त्म भी हो जाती है एक दिन। मगर ये अमावस तो ख़त्म होने रही- कमबख़्त।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />जगजीत सिंह, जिन्हें कबसे 'भाई' कह रहा हूं, याद नहीं। एकलव्य की तरह कबसे उन्हें अपना द्रौणाचार्य माने बैठा हूं बताना मुश्किल है। कितने बरस हुए जबसे मुरीद हूं- उनका, गिनना चाहूं भी तो नहीं गिन सकता। हां, एक याद है जो कभी-कभी बरसों की धुंधलाहट पोंछकर झांक लेती है और वो ये कि उनकी परस्तारी दिल पर तबसे तारी है जब ईपी या एलपी सुन-सुन कर घिस जाया करते थे। ग्रामोफ़ोन की सुई उनकी आवाज़ के किसी सुरमयी सिरे पर अक्सर अकट जाया करती थी और टेपरिकॉर्डर में ऑडियो कैसेट की रील लगातार चलते-चलते फंस जाया करती थी।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />थोड़ा-थोड़ा ये भी याद है कि तब हमारी गर्मियों की छुट्टियां और उनकी तपती दोपहरें आज के बच्चों की तरह एसी कमरों में टीवी या कम्प्यूटर के सामने नहीं बल्कि जगजीत-चित्रा की मखमली आवाज़ की ठंडक में बीता करती थीं। उन दिनों किताबों के साथ-साथ इस तरह भी शायरी की तालीम लिया करते थे। लफ़्ज़ों के बरताओ को यूं भी सीखा करते थे। अपने अंदर एकलव्य को पाला पोसा करते थे।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />भाई की किसी ग़ज़ल या नज़्म का ज़हनो-दिल में अटके रह जाने का टोटका हम अक्सर बूझते मगर नाकाम ही रहते। इस तिलिस्म का एक वरक़ तब खुला जब डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़ल भाई की आवाज़ में महकी। 'दिन भर सूरज किसका पीछा करता है / रोज़ पहाड़ी पर जाती है शाम कहां।' मैंने फ़ोन लगाया और पूछा - 'ये ग़ज़ल तो बड़ा अर्सा हुआ उन्हें आपको दिए हुए। अब गाई?' जवाब मिला - 'ग़ज़ल दिल में उतरती है तभी तो ज़ुबान पर चढ़ती है।' ..तो ग़ज़ल को अपने दिल में उतारकर, फिर उसे करोड़ों दिलों तक पहुंचाने का हुनर ये था.! तब समझ में आया। अर्से तक गुनगुनाते रहना और फिर गाना तो छा जाना। ये था जगजीत नाम का जादू।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />कोई पंद्रह बरस पहले की बात होगी। मुंबई में जहांगीर आर्ट गैलरी से सटे टेलीफ़ोन बूथ से उन्हें फ़ोन लगाया। अपने दो शे'र सुनाए - 'वो सज़ा देके दूर जा बैठा / किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है। जब भी चाहेगा, छीन लेगा वो / सब उसी का है आपका क्या है।' आसमान से लाखों बादलों की टोलियां गुज़र गईं और ज़मीन से जाने कितने मौसम। मगर ये दो शे'र भाई की यादों में धुंधले नहीं पड़े। तब से इस ग़ज़ल को मुकम्मल कराने और फिर एलबम 'इंतेहा' में गाने तक मुझे जाने कितनी बार उनसे अपने ये शे'र सुनने का शरफ़ हासिल हुआ। चार शे'र की इस ग़ज़ल के लिए चालीस से ज़्यादा शे'र कहलवाए उन्होंने। और मतला। उसकी तो गिनती ही नहीं। जब जो मतला कह कर सुनाता, कहते - 'और अच्छा कहो।' ग़ज़ल को किसी उस्ताद की तरह 24 कैरेट तक संवारने का हुनर हासिल था उन्हें। आप उनसे किसी ग़ज़ल के लिए या किसी ग़ज़ल में से, ख़ूबसूरत अश्आर चुनने का हुनर बख़ूबी सीख सकते थे।<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>'अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं / रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से / किसको मालूम कहां के हैं किधर के हम हैं।' ठीक। माना। मगर इस फ़िलॉसफ़ी के पीछे भी एक दुनिया होती है। दिल की दुनिया। जहां से एक उस्ताद, एक रहनुमा और एक बड़े भाई का जाना दिल की दो फांक कर देता है। जिनके जुड़ने की फिर कोई सूरत नज़र नहीं आती। समेटना चाहो तो सैकड़ों एलबम्स, हज़ारों कॉन्सर्ट्स और अनगिनत सुरीली ग़ज़लें-नज़्मे। इतने नायाब, ख़ूबसूरत और यादगार तोहफ़ों का कभी कोई बदल नहीं हो सकता। 'जाते-जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया / उम्र भर दोहराऊंगा ऐसी कहानी दे गया।'<br /><span style="font-size:0;"></span><br />जिसने अपनी आवाज़ के नूर से हमारी राहें रौशन कीं। हम जैसों को ग़ज़ल की इबारत, उसके मआनी समझाए। उसे बरतना और जीना सिखाया। शायरी की दुनिया में चलना सिखाया। उसे आख़िरी सफ़र के अपने कांधों पर घर से निकालना ऐसा होता है जैसे - 'उसको रुख़सत तो किया था मुझे मालूम न था / सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।' जग जीत कर जाने वाले जगजीत भाई हम आपका क़र्ज़ कभी नहीं उतार पाएंगे।<br /><br />आजतक में जगजीत जी के आख़िरी इंटरव्यू का लिंक -<br /><a href="http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/65682/2/0/Exclusive-Ghazal-king-Jagjit-Singhs-last-interview.html" rel="nofollow" target="_blank">http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/65682/2/0/Exclusive-Ghazal-king-Jagjit-Singhs-last-interview.html</a>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-58051378725091000752011-10-10T13:44:00.007+05:302011-10-10T14:36:20.657+05:30अमर हो गई 'जग जीत' ने वाली आवाज़<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIV8Ds6QzDPeeVB7poYg3oCnOc12Wf4-woeAbBWFeLVBTSpLb1aQUL7iU64kPkrZoy-RC_tLGIWGq2EE-m3ZfuMor10Rp4NTof3PIaSr3QX72zQ7HZ28UAZGhuoEv32DFAdu_CxJLJWbNN/s1600/Jagjit_Singh_Songs_%2528Mega_Collection%2529_%2528Hindi%2529_5GB.jpg"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; DISPLAY: block; HEIGHT: 266px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5661777114302194722" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIV8Ds6QzDPeeVB7poYg3oCnOc12Wf4-woeAbBWFeLVBTSpLb1aQUL7iU64kPkrZoy-RC_tLGIWGq2EE-m3ZfuMor10Rp4NTof3PIaSr3QX72zQ7HZ28UAZGhuoEv32DFAdu_CxJLJWbNN/s400/Jagjit_Singh_Songs_%2528Mega_Collection%2529_%2528Hindi%2529_5GB.jpg" /></a>उन्हीं ने गाया था - '...मेरा गीत अमर कर दो।' किसे पता था कि इतनी जल्दी हमें कहना पड़ेगा - 'कहां तुम चले गए?'<br /><br />आज ग़ज़ल गायिकी की एक मुक़द्दस किताब बंद हुई तो उससे सैकड़ों यादों में से एक सफ़्हा यूं ही खुल गया। बात थोड़ी पुरानी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है। ठीक वैसे जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं। ठीक वैसे ही जैसे एक मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी हमेशा आसपास ही कहीं सुनाई देती रहेगी।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />जगजीत भाई यूएस में थे, वहीं से फ़ोन किया - 'आलोक, कश्मीर पर नज़्म लिखो। एक हफ़्ते बाद वहां शो है, गानी है।' मैंने कहा - 'मगर में तो कभी कश्मीर गया नहीं। हां, वहां के हालाते-हाज़िर ज़रूर ज़हन में हैं, उन पर कुछ लिखूं।?' 'नहीं कश्मीर की ख़ूबसूरती और वहां की ख़ुसूसियात पर लिखो, जिनकी वजह से कश्मीर धरती की जन्नत कहा जाता है। दो रोज़ बाद दिसंबर को इंडिया आ रहा हूं तब तक लिख कर रखना। सुनूंगा।' जगजीत सिंह, जिन्हें कब से 'भाई' कह रहा हूं अब याद नहीं। भाई का हुक्म था, तो ख़ुशी के मारे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। मगर वही पांव कांप भी रहे थे कि इस भरोसे पर खरा उतर भी पाऊंगा, या नहीं।? जगजीत भाई के साथ 'इंतेहा' (एलबम) को आए तब कुछ वक़्त ही बीता था। फ़िज़ा में मेरे लफ़्ज़ भाई की मखमली आवाज़ में गूंज रहे थे और दोस्त-अहबाब पास आकर गुनगुना रहे थे- मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है / हौसला हो तो फ़ासला क्या है।''<br /><span style="font-size:0;"></span><br />सर्दी से ठिठुरती रात थी। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुशायरा था। डाइज़ शायरों से सजा था। रात के कोई ग्यारह बजे होंगे। मैं दावते-सुख़न के इंतज़ार में था कि तभी मोबाइल घनघनाया। वादे के मुताबिक़ जगजीत भाई लाइन पर थे और मैं उस नज़्म की लाइनें याद करने लगा जो सुबह ही कहीं थीं। 'हां, सुनाओ, कहा कुछ.?' 'जी, मुखड़े की शक्ल में दो-चार मिसरे कहे हैं।' 'बस, दो-चार ही कह पाए... चलो सुनाओ।' मैंने डरते हुए अर्ज़ किया -<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><strong>पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong>चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>हसीं वादियों में महकती है केसर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>''हां अच्छा है, इसे आगे बढ़ाओ।'' जो जगजीत भाई को क़रीब से जानते थे, वो ये मानते होंगे कि उनका इतना कह देना ही लाखों दानिशमंदों की दाद के बराबर होता था। 'जी, परसों संडे है, उसी दिन पूरी करके शाम तक नोट करा दूंगा।' उनके ज़हन में जैसे कोई क्लॉक चलता है, सोचा और बोले - 'अरे उसके दो रोज़ बाद ही तो गानी है, कम्पोज़ कब करूंगा। और जल्दी कहो।' मगर मैंने थोड़ा आग्रह किया तो मान गए। दो रोज़ बाद फ़ोन लगाया तो कार से किसी सफ़र में थे 'क्या हो गई नज़्म, नोट कराओ।' मैंने पढ़ना शुरू किया-<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><strong>पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>हसीं वादियों में महकती है केसर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br /><strong>यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>यहां की ज़बां है बड़ी ख़ूबसूरत</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>यहां की हवाएं भी ख़ुशबू से हैं तर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br /><strong>ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>ये वादी में हंसते हुए फूल सारे</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br /><strong>सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>ये पीरों फ़कीरों का है आशियाना</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>यहां सर झुकाती है क़ुदरत भी आकर</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><strong>ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र </strong><br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>''अच्छी है, मगर क्या बस इतनी ही है।?'' मैंने कहा - ''जी, फ़िलहाल तो इतने ही मिसरे हुए हैं।'' ''चलो ठीक है। मिलते हैं।''<br /><span style="font-size:0;"></span><br />एक बर्फ़ीली शाम 4 बजे श्रीनगर का एसकेआईसीसी ऑडिटोरियम ग़ज़ल के परस्तारों से खचाखच भरा, ग़ज़ल गायिकी के सरताज जगजीत सिंह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। कहीं सीटियां गूंज रहीं थीं तो कहीं कानों को मीठा लगने वाला शोर हिलोरे ले रहा था और ऑडिटोरियम की पहली सफ़ में बैठा मैं, जगजीत भाई की फ़ैन फ़ॉलॉइंग के इस ख़ूबसूरत नज़ारे का गवाह बन रहा था। जगजीत भाई स्टेज पर आए और ऑडिटोरियम तालियों और सीटियों की गूंज से भर गया और जब गुनगुनाना शुरू किया तो माहौल जैसे बेक़ाबू हो गया। एक के बाद एक क़िलों को फ़तह करता उनका फ़नकार हर उस दिल तक रसाई कर रहा था जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ून ही गर्दिश कर सकता है। उनकी आवाज़ लहू बन कर नसों में दौड़ने लगी थी।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />जग को जीत ने वाला जगजीत का ये अंदाज़ मैने पहले भी कई बार देखा था लेकिन उस रोज़ माहौल कुछ और ही था। उस रोज़ जगजीत भाई किसी दूसरे ही जग में थे। ये मंज़र तो बस वहां तक का है जहां तक उन्होंने 'कश्मीर नज़्म' पेश नहीं की थी। दिलों के जज़्बात और पहाड़ों की तहज़ीब बयां करती जो नज़्म उन्होंने लिखवा ली थी उसका मंज़र तो उनकी आवाज़ में बयां होना अभी बाक़ी था। मगर जुनूं को थकान कहां होती।? अपनी मशहूर नज़्म वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी के पीछे जैसे ही उन्होंने पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर बिछाई पूरा मंज़र ही बदल गया। हर मिसरे पर 'वंसमोर, वंसमोर' की आवाज़ ने जगजीत भाई को बमुश्किल तमाम आगे बढ़ने दिया। आलम ये रहा कि कुल जमा सोलह मिसरों की ये नज़्म वो दस-पंद्रह मिनिट में पूरी कर पाए। दूसरे दिन सुबह श्रीनगर के सारे अख़बार जगजीत के जगाए जादू से भरे पड़े थे। एक समाचार दैनिक में 'ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र' की हेड लाइन थी और ख़बर में लिखा था - ''पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर / चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर / हसीं वादियों में महकती है केसर / कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर / ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र आलोक श्रीवास्तव के इन बोलों को जब जगजीत सिंह का गला मिला तो एसकेआईसीसी का तापमान यकायक गरम हो गया। ये नज़्म की गर्मी थी और सुरों की तुर्शी। ऑडिटोरियम के बाहर का पारा माइनस में ज़रूर था मगर अंदर इतनी तालियां बजीं कि हाथ सुर्ख़ हो गए। स्टीरियो में कान लगाकर सुनने वाले घाटी के लोग और जगजीत सिंह बुधवार को यूं आमने-सामने हुए।''<br /><span style="font-size:0;"></span><br />बात थोड़ी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है। ठीक वैसे जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं। ठीक वैसे ही जैसे एक मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी कहीं आसपास ही सुनाई देती रहेगी। आमीन।aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-86042863751981386272011-10-08T16:45:00.014+05:302011-10-08T17:34:09.322+05:30बेमिसाल लता<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcl7_Vb5p_46v-Ha6qiIoGyKw1EF_5Tp3sprqasNxstZI_KWt4-i8ApV4spmZXzQKw50_v3kJ4v-kAx22vij9WREHXQ0ppztZTkGZwfY9m-dt-HJZEuEGeCkMPxhJR11V-nmWilbVdKoEK/s1600/Lata+Mangeshkar.jpg"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; DISPLAY: block; HEIGHT: 261px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5661084479956601938" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcl7_Vb5p_46v-Ha6qiIoGyKw1EF_5Tp3sprqasNxstZI_KWt4-i8ApV4spmZXzQKw50_v3kJ4v-kAx22vij9WREHXQ0ppztZTkGZwfY9m-dt-HJZEuEGeCkMPxhJR11V-nmWilbVdKoEK/s400/Lata+Mangeshkar.jpg" /></a>समंदर की गहराई को किसने नापा है<span style="font-size:0;"></span>? किसके बूते में है आसमान के कैनवस पर ब्रश फेरना? चंद रोज़ पहले एक दरीचा खुला। एक पुराना ख़्वाब था। दरिचा खुला तो वही ख़्वाब पर फैला कर उड़ा वहां से। ख़्वाब था कि टीवी में रहते हुए लता जी पर फ़िल्म बना सकूं। उन पर कुछ लिख सकूं। सो वक़्त मेहरबां हुआ और सुरों की उस बड़ी शख़्सियत पर एक छोटी-सी फ़िल्म बन गई - <strong>बेमिसाल लता.</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><br />गए28 सितंबर को अपनी लता जी 82साल की हुईं और 'आजतक' पर <strong>बेमिसाल लता</strong> टेलीकास्ट हुई। अब वही फ़िल्म youtube पर आ गई है। ज़्यादा नहीं, बस 33 मिनट का समय निकाल लीजिए और एक ही सिटिंग में इसे देख डालिए। हालांकि समंदर की गहराई को किसने नापा है? किसके बूते में है आसमान के कैनवस पर ब्रश फेरना?<br /><br /><strong>BEMISAL LATA Special for Aajtak PART 1 To 6</strong><br /><br />PART 1<br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=yqWPPMYZpwo">http://www.youtube.com/watch?v=yqWPPMYZpwo</a><br /><br />PART2<br /><span style="font-size:0;"></span><a id="yiv687210998yui_3_2_0_14_1318065241531154" href="http://www.youtube.com/watch?v=U1hvvb-Et94&feature=related" rel="nofollow" target="_blank" saprocessedanchor="true">2http://www.youtube.com/watch?v=U1hvvb-Et94&feature=related</a><br /><br />PART3<br /><a id="yiv687210998yui_3_2_0_14_1318065241531233" href="http://www.youtube.com/watch?v=C8D55FbXJ2k&feature=related" rel="nofollow" target="_blank" saprocessedanchor="true">http://www.youtube.com/watch?v=C8D55FbXJ2k&feature=related</a><br /><br />PART 4<br /><a id="yiv687210998yui_3_2_0_14_1318065241531296" href="http://www.youtube.com/watch?v=4lUbMttaWCI&feature=related" rel="nofollow" target="_blank" saprocessedanchor="true">http://www.youtube.com/watch?v=4lUbMttaWCI&feature=related</a><br /><br />PART 5<br /><a id="yiv687210998yui_3_2_0_14_1318065241531366" href="http://www.youtube.com/watch?v=KUegoQZea5c&feature=related" rel="nofollow" target="_blank" saprocessedanchor="true">http://www.youtube.com/watch?v=KUegoQZea5c&feature=related</a><br /><br />PART 6<br /><a href="http://www.youtube.com/watch?v=hGk5Ppprzpw&feature=related" rel="nofollow" target="_blank" saprocessedanchor="true">http://www.youtube.com/watch?v=hGk5Ppprzpw&feature=related</a><br /><span style="font-size:0;"></span><br />आपका ही आलोकaalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-80083295785362690102011-09-26T10:14:00.008+05:302011-09-26T13:58:10.044+05:30'जग जीत' ने वाले यूं नहीं हारते<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlgFH2e8ni0PGKt9SREM0pUqeZThsiZjAk2Y4dWL1uSp0LSYNSU-FgwJrO7RlNNjPy_AgYofwexvPZ5vwIoqE1IXJD1a0WIB-MB_JXjcBUDr05BZocBwelSjtxzhmmOTJ7Fat9Z-IeoAO3/s1600/inteha.jpg"><img style="TEXT-ALIGN: center; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; DISPLAY: block; HEIGHT: 133px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5656535748154050194" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlgFH2e8ni0PGKt9SREM0pUqeZThsiZjAk2Y4dWL1uSp0LSYNSU-FgwJrO7RlNNjPy_AgYofwexvPZ5vwIoqE1IXJD1a0WIB-MB_JXjcBUDr05BZocBwelSjtxzhmmOTJ7Fat9Z-IeoAO3/s400/inteha.jpg" /></a>तकलीफ़ क्या बांटनी? दुख को क्या सांझा करूं? जगजीत सिंह जी पिछले चार रोज़ से आईसीयू में हैं। एक महफ़िल में गाते हुए ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल में ऑपरेशन। परसों मुंबई से ही मित्र रीतेश ने मैसेज किया, फ़िक्र जताई - <em>आलोक भाई, जगजीत जी ठीक तो हो जाएंगे न? उनकी आवाज़ में सजा आपका एक शेर कल से ज़हन में मायूस घूम रहा है -<br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>चांदनी आज किस लिए नम है,</strong></em><br /><strong><em>चांद की आंख में चुभा क्या है।</em></strong><br /><strong><em><span style="font-size:0;"></span></em></strong><span style="font-size:0;"></span><br />हां दोस्त, चांद की आंख में कुछ चुभ गया है मगर सुबह-सुबह एक ख़ुशी ने भी दस्तक दी है। जगजीत जी के अनुज करतार भाई ने फ़ोन पर ख़ुशख़बरी सुनायी कि - <em>अब भाई की तबीयत पहले से बहुत बेहतर है।</em> तो सोचा इस ख़ुशबू को दूर-दूर तक फैला दूं।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />अपनी मख़मली आवाज़ से एक पूरा युग सजाने वाले जगजीत सिंह के लाखों-करोड़ों चाहने वाले ये जान कर जश्न मना लें कि अब अपने जगजीत भाई बहुत हद तक ठीक हो चुके हैं। आज सुबह जब करतार भाई का फ़ोन आया तो सूरज को काम संभाले कोई तीन-चार घंटे हो चुके थे। मगर उजाला, करतार भाई की आवाज़ के बाद हुआ। 'जग जीत' ने वाले यूं हारा नहीं करते। अब तो बस ये दुआ कीजिए कि वो जल्द ही आईसीयू और लीलावती हॉस्पिटल से भी बाहर आ जाएं ताकि फिर एक बार फ़िज़ा उनकी आवाज़ से महक सके। आमीन।<br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br />तकलीफ़ क्या बांटना? दुख को क्या सांझा करना? हां, आज सुबह जब एक ख़ुशी ने दस्तक दी तो सोचा इस ख़ुशबू को दूर-दूर तक फैला दूं। इस गठरी से मुट्ठी-भर ख़ुशबू लेकर आप भी फ़िज़ा में उछाल दीजिए। माहौल ख़ुशनुमा हो जाएगा।aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-22232475199774489662011-09-08T15:18:00.004+05:302011-09-08T23:47:06.461+05:30फिर आमीन.!<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqXIVOPXmex4NFAHwkJFUjgQ1rgMhhMOUvk6Qm12D63c7fiplkh6tE7QzUzEfqxhCnAyAv3mMAa1SboVu0asZlf3q0gR32KE9JE_LMXO3z2FDmb8HIncuDF2lftRr_vn_opXX1zO4W7vuW/s1600/Aameen.jpg"><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 228px; FLOAT: left; HEIGHT: 400px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5649925329819612722" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqXIVOPXmex4NFAHwkJFUjgQ1rgMhhMOUvk6Qm12D63c7fiplkh6tE7QzUzEfqxhCnAyAv3mMAa1SboVu0asZlf3q0gR32KE9JE_LMXO3z2FDmb8HIncuDF2lftRr_vn_opXX1zO4W7vuW/s400/Aameen.jpg" /></a><br /><br /><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div><br /><div></div>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-43252768315116498712011-08-29T16:45:00.009+05:302011-08-30T09:21:31.111+05:30पूश्किन सम्मान<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqAvHOs1Qc6kABndQVVmgs0MG7nvEvcpmyX5MfKwrXPdScVzBc7-xitOKnBbCvdOWSmgyt8ZhwnGdBRmFuvwB5HBv6aq6vZhbVW3pCB4eYRzqP_1dObjcAUkGGKm105kfym5P_3FkAiJzg/s1600/Aalok&Sencovich.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5646238682135359858" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 262px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqAvHOs1Qc6kABndQVVmgs0MG7nvEvcpmyX5MfKwrXPdScVzBc7-xitOKnBbCvdOWSmgyt8ZhwnGdBRmFuvwB5HBv6aq6vZhbVW3pCB4eYRzqP_1dObjcAUkGGKm105kfym5P_3FkAiJzg/s320/Aalok%2526Sencovich.JPG" border="0" /></a>जनसत्ता एक्सप्रेस.नेट से साभार
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<br /><strong>मॉस्को।</strong> ''तुम्हारे पास आता हूं, तो सांसें भीग जाती हैं / मुहब्बत इतनी मिलती है, कि आंखें भीग जाती हैं.” हिन्दी के जाने-माने कवि आलोक श्रीवास्तव ने अपनी यह पंक्तियां जब हिंदुस्तानियों की ओर से भारतीय साहित्य और संस्कृति के चहेते रूसियों को नज़्र कीं तो मॉस्को में आयोजित पूश्किन सम्मान समारोह में मौजूद लोगों की आंखें सचमुच भीग गईं. कार्यक्रम समाप्त हुआ तो इन पंक्तियों के साथ कई लोग देर तक भारत-रूस के पुराने-रिश्ते को याद करते रहे.
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<br />आलोक श्रीवास्तव यहां रूस का प्रतिष्ठित ‘अंतरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान’ लेने आए हुए थे. आलोक को यह सम्मान उनके चर्चित ग़ज़ल संग्रह ’आमीन’ के लिए प्रसिद्ध रूसी कवि अलेक्सान्दर सेंकेविच ने दिया. रूस का ‘भारत मित्र समाज’ पिछले बारह वर्षों से प्रतिवर्ष हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि या लेखक को मास्को में हिन्दी-साहित्य का यह महत्वपूर्ण सम्मान देता है. इस बार यह सम्मान भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिया गया.
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<br />रूस में बसे भारतीयों के साथ हिंदी-रूसी भाषा के साहित्यकारों और विद्वानों की मौजूदगी में आलोक को सम्मान स्वरूप प्रख्यात रूसी कवि अलेक्सान्दर पूश्किन की पारम्परिक प्रतिमा, सम्मान-पत्र और प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. सम्मान के अन्तर्गत आलोक दस दिन तक रूस के विभिन्न शहरों की साहित्यिक-यात्रा करेंगे और यहां प्रसिद्ध रूसी-कवियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों से मिलेंगे. इस अवसर पर ’भारत मित्र समाज’ आलोक श्रीवास्तव की प्रतिनिधि रचनाओं का रूसी भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित करेगा. ‘भारत मित्र समाज’ के महासचिव अनिल जनविजय ने मॉस्को से जारी विज्ञप्ति में यह सूचना दी है.
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<br />पेशे से टीवी पत्रकार आलोक लगभग दो दशक से साहित्यिक-लेखन में सक्रिए हैं. उनकी रचनाएं हिन्दी-साहित्य की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. वर्ष 2007 में प्रकाशित उनके पहले ग़ज़ल-संग्रह ‘आमीन’ से उन्हें विशेष पहचान मिली. इसी पुस्तक के लिए आलोक को मप्र साहित्य अकादमी का ‘दुष्यंत कुमार पुरस्कार’, ‘हेमंत स्मृति कविता सम्मान’ और ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ जैसे कई प्रतिष्ठित साहित्यिक-सम्मान मिल चुके हैं मगर वे हिंदी के पहले ऐसे युवा ग़ज़लकार हैं जिन्हें रूस का यह महत्वपूर्ण सम्मान दिया गया है. हिन्दी-रूसी साहित्य के मूर्धन्य कवि-लेखकों व अध्येता-विद्वानों की पांच सदस्यीय निर्णायक-समिति ने जनवरी 2011 में आलोक श्रीवास्तव को इस सम्मान के लिए चुना था.
<br />aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-86163879605199751892011-07-21T17:09:00.010+05:302011-07-21T18:17:07.518+05:30नेह बोलियां<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6jwjwhfuqXpx44GYjmeYA7sQo9JYZfhwf_wlqhtXzdV-jfoC0NV5jzCgg7YvmboZsli0Uu00XY-Nz2KRFTOV6m3XqiBsjKK6vmfCfW2DchOvdBbp3UPfEVX4lhalMkhWWQcCgAINpRJzv/s1600/shubha-mudgal.jpg"><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 160px; FLOAT: left; HEIGHT: 160px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5631782400835275202" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6jwjwhfuqXpx44GYjmeYA7sQo9JYZfhwf_wlqhtXzdV-jfoC0NV5jzCgg7YvmboZsli0Uu00XY-Nz2KRFTOV6m3XqiBsjKK6vmfCfW2DchOvdBbp3UPfEVX4lhalMkhWWQcCgAINpRJzv/s320/shubha-mudgal.jpg" /></a>नेह भी अजीब होता है.!? जो समझ ले सूफ़ी हो जाता है और जो न समझे वो बावरा। कभी ऐसी ही एक बावरी का चेहरा बुना था। नासमझ बावरी। सोचा, चलो इसे नेह के मायने समझाऊं तो काग़ज़ पर चंद मासूम से मिस्रों की शक्ल उभर आई। एक नज़्म ने करवट ली और नींद से जाग कर बोली - 'चलो, अब जगाया है तो मुझे गुनगुनाओ भी.!'<br />मैं ठहरा निरा बेसुरा.! उस नज़्म को भला मैं क्या गुनगुनाता.? तो मेरे लिए ये मुश्किल हमेशा की तरह शुभा दीदी ने आसान कर दी। कमाल का गाया। जैसा वो सदा गाती हैं।<br />जब उन्होंने गाया तो मुझे आपके लिए अपना फ़र्ज़ याद आया। सोचा, आपसे उस गुनगुनाहट को बांटूं जिसने मुझे भी अपनी ख़ुमारी में ले रखा है।<br /><span style="font-size:0;"></span>फ़िलहाल यहां उस नज़्म को लफ़्ज़ों का चेहरा दे रहा हूं। ऑडियो क्लिप की खिड़की खोल कर शुभा दीदी की आवाज़ का ख़ुशबूदार झौंका भी आप जल्द ही महसूस कर पाएंगे। आमीन। <br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span><br /><strong>ओ री बावरी, समझा तो कर<br />नेह बोलियां।</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>चांद गगन में पूरा क्यूं है<br />पूनम का मुख उजला क्यूं है<br />क्यूं मिलता है सुब्ह से सूरज<br />शाम का चेहरा पीला क्यूं है<br />समझा तो कर.!</strong><br /><strong></strong><br /><strong>सुन तो ज़रा मीरा की तानें<br />क्या कहती हैं रोज़ अज़ानें<br />ख़ुशबू आख़िर,ख़ुशबू क्यूं है<br />धरती पर मैं और तू क्यूं हैं </strong><br /><strong><span></span>समझा तो कर.!</strong><br /><strong></strong><br /><strong>भेद जिया के ऐसे वैसे<br />खोल दिए आंखों ने कैसे<br />कुछ भी नहीं तो फिर ये हया क्यूं<br />कुछ भी नहीं है, ऐसा कैसे<br />समझा तो कर.!</strong>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-84703009768958041072011-04-20T20:48:00.009+05:302011-04-20T22:04:50.876+05:30ग़ज़ल का नया सिरा<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhemDd5nJPB2k7BMLTi0YO5DpQ7qWc6EsgAvp46jkOCO8jPcaBexEy6rmAPP4Oj5OKzKhsHg9c0XsBmpZGsfc4TArpsN75sgwa2WW0dzzjsFek6l-bdwO0nkLxkW6FauV6gfq7Dt8lQOyAm/s1600/Nainital_120311+118+-+Copy.JPG"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 234px; FLOAT: right; HEIGHT: 320px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5597697344196122498" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhemDd5nJPB2k7BMLTi0YO5DpQ7qWc6EsgAvp46jkOCO8jPcaBexEy6rmAPP4Oj5OKzKhsHg9c0XsBmpZGsfc4TArpsN75sgwa2WW0dzzjsFek6l-bdwO0nkLxkW6FauV6gfq7Dt8lQOyAm/s320/Nainital_120311+118+-+Copy.JPG" /></a>'वो लड़की जब भी मिलती है ये आंखें भीग जाती हैं।' यह एक मिस्रा क्या हो गया, अज़ाब हो गया। नए-प्राचीन मित्रों तक, जिसे भी सुनाया, सबने बातें सुनाईं। एक बेबाक दोस्त तो यहां तक कह गए कि - 'अब ऐसे मिस्रे सुनाएंगे.? अमां भीड़ में बह कर ऐसे कमज़ोर शेर कहने से बेहतर है वैसा कुछ कहो जिसके लिए थोड़े-बहुत जान लिए गए हो।' अक़्ल रौशन हुई तो बात भी समझ में आ गई। दरअस्ल चमकते हुए चंचल शब्दों के पीछे का सच अक्सर कुछ और ही होता है, चहरा देख कर बहक जाओ तो रूह तक चोट लगती है मगर सलाम उन सरपरस्तों और दोस्तों की मुहब्बत को जिन्होंने भटकने से पहले राह दिखा दी। गिरने से पहले संभाल लिया। नए सिरे से ग़ज़ल कही, यह नया सिरा आपकी दुआओं को सौंप रहा हूं, संभालिएगा -<br /><br /><strong>तुम्हारे पास आता हूं तो सांसे भीग जाती हैं,</strong><br /><strong>मुहब्बत इतनी मिलती है के' आंखें भीग जाती हैं।</strong><br /><br /><strong>तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बरसात जैसी है,</strong><br /><strong>वो जब भी बात करता है तो बातें भीग जाती हैं।</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,</strong><br /><strong>तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो सांसें भीग जाती हैं।</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,</strong><br /><strong>नए पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं।</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>तेरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है,</strong><br /><strong>तेरी रहमत की बारीश से मुरादें भीग जाती हैं।</strong><br /><span style="font-size:0;"></span><br />आपका ही आलोकaalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-4160476763310670442011-03-02T22:09:00.005+05:302011-03-02T22:43:26.924+05:30इधर कुछ दिन से..<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj15M5jjYC9HXIVT83BjKZTt9enF7C6rABWliDAzfwzzEHXuXdgJ-SHElRvbfzPta52x5KMBjxkZ_SLD-xvO_tchpJIfCpa9dfEU1cnKRnJXWhgIKtKVbSycUIWceilXD886EbkMvyf7reQ/s1600/imagesCA29ES4Y.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 191px; FLOAT: right; HEIGHT: 264px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5579530049770664178" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj15M5jjYC9HXIVT83BjKZTt9enF7C6rABWliDAzfwzzEHXuXdgJ-SHElRvbfzPta52x5KMBjxkZ_SLD-xvO_tchpJIfCpa9dfEU1cnKRnJXWhgIKtKVbSycUIWceilXD886EbkMvyf7reQ/s320/imagesCA29ES4Y.jpg" /></a><br /><div>सच.! इधर कुछ दिन से अजब-सा हाल है मन का। उलझनें कुछ भी नहीं हैं और ये मन, उलझता जा रहा है अनगिनत परछाइयों से। वक़्त जैसे बाज़ लेकर उड़ रहा है, तेज़-तेज़। बस हवाएं और सदाएं और अदाएं। कौन है जो बांध कर ले जा रहा है। फिर ख़याल आया हज़ारों बार ये भी - तोड़ कर बंधन ये सारे लिख ही डालूं ये सभी बेचैनियां मन की। मगर अजानी शय है जो पीछे भागती है, रोक लेती है क़लम को। बांध देती है बहुत कस के मेरी इन उंगलियों को। ज़हन, रफ़्तार लेकर क्या करेगा जबकि ये औज़ार पीछे हट रहे हों। मगर अब हो गया, बहुत सब हो गया। सोचा कि अब लिखना पड़ेगा। वर्ना ये सांसें हमारी यूं ही एक दिन। धूप में काफ़ूर बन के उड़ रहेंगी। और हम आंखों को खोले सो रहेंगे। इधर कुछ दिन से अजब सा हाल है मन का। इधर कुछ यूं कहा है मन ने मेरे -<br /><br /><strong>वो लड़की जब भी मिलती है, ये आंखें भीग जाती हैं,</strong><br /><strong>कभी शबनम बरसती है, तो रातें भीग जाती हैं.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,</strong><br /><strong>ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.</strong><br /><strong></strong><br /><strong>ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,</strong><br /><strong>नए पत्तों की आमद से तो शाखें भीग जाती हैं.</strong></div>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-27704701838141898732010-09-25T15:56:00.006+05:302010-09-25T16:21:25.511+05:30दो पवित्र आत्माओं का पत्र<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiox5mUTyVFr0EWbl0Igh-i4jL1Tk0HGDxU9xRWgmWz-KDwfEEZslGnhXyJVRiRhDogO0rfA75g-kdBgZTqnEUj-l7wDJfDWaxjfwxXEdJN2Cr_B7RGw_MOC27BGRKbOH-Ng5kUYxKRMMhH/s1600/Sradh1.bmp"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5520800171837391346" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 180px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiox5mUTyVFr0EWbl0Igh-i4jL1Tk0HGDxU9xRWgmWz-KDwfEEZslGnhXyJVRiRhDogO0rfA75g-kdBgZTqnEUj-l7wDJfDWaxjfwxXEdJN2Cr_B7RGw_MOC27BGRKbOH-Ng5kUYxKRMMhH/s320/Sradh1.bmp" border="0" /></a>प्रिय चिरंजीव<span class="">,</span> <div>आयुष्मान भव। </div><div>अत्र कुशलम् तत्रास्तु। पितृ-पक्ष में अपने लिए तुम्हें श्रद्धा पूर्वक तर्पण-अर्पण करते देखा। बहुत सुख मिला। वह सुख जो तुम्हारे जन्म के समय मिला था। तुम्हारी नर्म-मुलायम हथेलियों के स्पर्श से पुलकित हुआ था। वह सुख जो पहली बार तुम्हें पइयां-पइयां चलते देखकर आंखों से छलका था। जो तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होते देख गौरव में बदला था। वह सुख जो तुम्हारी व्यस्तता बढ़ने के साथ-साथ घटता गया था। वही सुख तुम्हें यूं तर्पण-अर्पण करते देख, हमारे हृदय में फिर से पांव पसार गया है। हम तो अब एक शून्य में अटके हुए हैं और तुम जीवन-कथाएं लिख रहे हो। यदि समय मिले तो हमारी इस व्याकुलता का उत्तर भी लिखना कि क्यूं हम जैसे माता-पिता को मरणोपरांत ही मिलता है वह आदर-समर्पण जिसके हम जीते-जी अधिकारी थे। क्यूं उम्र के अंतिम सोपान पर हम एकाकी हो जाते हैं। किसी आश्रम, देवालय या घर के किसी किनारे-कमरे में सिमट जाते हैं। अपने ही समय में बीते हुए समय-सा हो जाते हैं। जीवन में अनगिन प्रसंग बनाए फिर भी हमने अपना अप्रासंगिक होना भोगा।? हालांकि किसी ने हमारे दर्द को शब्द दिए, तो किसी ने अपनी संवेदना - </div><div><strong>जाती हुई धूप संध्या की सेंक रही है मां,</strong></div><div><strong>अपना अप्रासंगिक होना देख रही है मां।</strong> (1) </div><div><span class=""></span></div><div>प्रश्न कई घुमडे हैं मन में। कुछ बौने हैं और कुछ विकराल। सोचते हैं कि क्या इसी को हमने अपना संसार माना था। अपने संस्कार माना था। यदि यही हमारे संस्कार थे तो यह मात्र श्राद्ध तक ही क्यूं ठहर गए। आचरण में क्यूं नहीं उतरे। हमने तो सुना था - </div><div><strong><em><span class=""></span></em></strong></div><div><strong>एक अजाने स्रोत से निकली हुई धारा, </strong></div><div><strong>अनवरत बहती है तब विस्तार पाती है।</strong> (2) </div><div><span class=""></span></div><div>यह कैसा विस्तार हुआ जो सोलह दिन में सिमट कर रह गया है।क्या तुम अपने बेटे को यह बता सकोगे कि हम कितने अकेले थे उस वीरान कमरे में, जिसमें घर का शायद ही कोई आता-जाता था। महीनों तुमसे बतियाने को तरसे थे हम। अलबत्ता, कोने वाले उस कमरे की खिड़की से तुमको घर आते-जाते देखा करते थे। कितना बदल गया है समय, सोचा करते थे। एक समय था जब तुमको पल भर की दूरी स्वीकार नहीं थी। 'सोते समय अपना हाथ हमारे ऊपर रखना, मुंह भी सारी रात हमारी तरफ़ ही करना।' सोने से पहले तुम्हारी सारी तुतली-शर्तें हम नींद में भी पूरी करते थे। फिर रोते-रोते वह आलम भी देखा कि- 'एक नज़र ठहरे बेटे की, चलते-चलते हम पर भी।' हम थक गए तो मन तुम्हारी दुआओं में चलने लगा। मचलने लगा। उम्र की थकान के बावजूद आशीष निकलता रहा। कहीं पढ़ा कि - </div><div><strong><em><span class=""></span></em></strong></div><div><strong>थके पिता का उदास चेहरा, उभर रहा है यूं मेरे दिल में, </strong></div><div><strong>कि प्यासे बादल का अक्स जैसे, किसी सरोवर से झांकता है।</strong> (3)</div><div><span class=""></span></div><div>वह थके पिता की तलाश ही थी जो एक बूंद जल के लिए बादल की तरह तुम्हारे सरोवर में झांक रही थी- 'कि कब तुम पिघलो और हमें तृप्ति मिले।' मगर हमारी प्यास, प्यासी ही रही। वह सूखा कंठ आज भी चुभता है। उसी चुभन और सवालों को लेकर शून्य में भटक रहे थे कि तुम्हें तर्पण-अर्पण करते देखा, तो बहुत सुख मिला। जिस श्रद्धा और समर्पण को हम तरस रहे थे। उसी प्रेम के सारे बादल झर्झर करके बरस रहे थे। काश हमारी आत्माओं को यह तृप्ति, जीते-जी ही मिल जाती। </div><div><span style="font-size:78%;"><strong>कवितांश :</strong> 1. यश मालवीय, 2. आनंद 'सहर', 3. आलोक श्रीवास्तव। </span></div>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-53335338063760192232010-02-13T15:00:00.012+05:302011-09-09T21:12:57.974+05:30'जग जीत' ने का हुनर<img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; FLOAT: left; HEIGHT: 272px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5437661567163006306" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjj8zUvyCC3OOKkyjuCUjxe22ShAGsLokVJObhnMmBnjMCLdtJOkNbsZrxnWqmkJfL-aHS_JuNBYxcS527I-OL0X7p9zTrprv5omOsKkqTHB-BicF3qUgaLSzdQIYtBBX2oGff0r6F11IVT/s320/Musical-eve-with-Jagjit-Singh.jpg" />बात थोड़ी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है।<br /><span style="font-size:0;"></span><br />बात, 1 दिसंबर 2009 की है। जगजीत जी यूएस में थे, वहीं से फ़ुनियाया - 'आलोक, कश्मीर पर नज़्म लिखो। 9 दिसंबर को वहां शो है, गानी है।' मैंने कहा - 'मगर में तो कभी कश्मीर गया नहीं। हां, वहां के हालाते-हाज़िर ज़रूर ज़हन में हैं, उन पर कुछ लिखूं.?' 'नहीं कश्मीर की ख़ूबसूरती और वहां की ख़ुसूसियात पर लिखो, जिनकी वजह से कश्मीर धरती की जन्नत कहा जाता है। 4 दिसंबर को इंडिया आ रहा हूं तब तक लिख कर रखना। सुनूंगा।' हुक्म जगजीत जी का था, तो ख़ुशी के मारे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। मगर कांप भी रहे थे कि इस भरोसे पर खरा उतर भी पाऊंगा, या नहीं.? बहरहाल।<br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span>4 तारीख़ को दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुशायरा था। मलिक ज़ादा साहब, वसीम बरेलवी साहब और जनाब मुनव्वर राना से मुशायरे का डाइज़ सजा हुआ था। रात के कोई ग्यारह बजे होंगे। इक़बाल इशहर अपने अशआर पेश कर रहे थे और मैं दावते-सुख़न के इंतज़ार में था कि तभी मोबाइल घनघनाया। वादे के मुताबिक़ जगजीत जी लाइन पर थे और मैं उस नज़्म की लाइनें याद करने लगा जो सुबह ही कहीं थीं। 'हां, सुनाओ, कहा कुछ.?' 'जी, मुखड़े की शक्ल में दो-चार मिसरे कहे हैं।' 'बस, दो-चार ही कह पाए... चलो सुनाओ।' मैंने डरते हुए अर्ज़ किया -<br /><br /><strong>पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर<br />चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर<br />हसीं वादियों में महकती है केसर<br />कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर<br />है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong>'हां अच्छा है, इसे आगे बढ़ाओ।' जो जगजीत जी को क़रीब से जानते है, वो ये मानते होंगे कि उनका इतना कह देना ही लाखों दानिशमंदों की दाद के बराबर होता है। 'जी, 6 दिसंबर को संडे है, उसी दिन पूरी करके शाम तक नोट करा दूंगा।' उनके ज़हन में जैसे कोई क्लॉक चलता है, सोचा और बोले - 'अरे 9 तारीख़ को तो गानी है, कम्पोज़ कब करूंगा। और जल्दी कहो।' मगर मैंने थोड़ा एस्कूज़ किया तो मान गए। 6 दिसंबर को शाम फ़ोन लगाया तो कार से किसी सफ़र में थे 'क्या हो गई नज़्म, नोट कराओ।' मैंने पढ़ना शुरू किया -<br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर<br />चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर<br />हसीं वादियों में महकती है केसर<br />कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर<br />ये कश्मीर क्या है<br />है जन्नत का मंज़र</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत<br />यहां की ज़बां है बड़ी ख़ूबसूरत<br />यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत<br />यहां की हवाएं भी ख़ुशबू से हैं तर<br />ये कश्मीर क्या है<br />है जन्नत का मंज़र</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे<br />ये वादी में हंसते हुए फूल सारे<br />यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे<br />फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर<br />ये कश्मीर क्या है<br />है जन्नत का मंज़र</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong>सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना<br />अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना<br />ये पीरों फ़कीरों का है आशियाना<br />यहां सर झुकाती है क़ुदरत भी आकर</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong>ये कश्मीर क्या है</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><strong>है जन्नत का मंज़र</strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong><br /><strong><span style="font-size:0;"></span></strong>'अच्छी है, मगर क्या बस इतनी ही है.?' मैंने कहा - 'जी, फ़िलहाल तो इतने ही मिसरे हुए हैं।' 'चलो ठीक है। मिलते हैं।'<br /><br />9 दिसंबर, शाम 4 बजे ग़ज़ल के परस्तारों से खचाखच भरा श्रीनगर का एसकेआईसीसी ऑडिटोरियम ग़ज़ल गायिकी के सरताज जगजीत सिंह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। कहीं सीटियां गूंज रहीं थीं तो कहीं कानों को मीठा लगने वाला शोर हिलोरे ले रहा था और ऑडिटोरियम की पहली सफ़ में बैठा मैं, जगजीत जी की फ़ैन फ़ॉलॉइंग के इस ख़ूबसूरत नज़ारे का गवाह बन रहा था।<br /><br />जगजीत जी स्टेज पर आए और ऑडिटोरियम तालियों और सीटियों की गूंज से भर गया और जब गुनगुनाना शुरू किया तो माहौल जैसे बेक़ाबू हो गया। एक के बाद एक क़िलों को फ़तह करता उनका फ़नकार हर उस दिल तक रसाई कर रहा था जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ून ही गर्दिश कर सकता है। उनकी आवाज़ लहू बन कर नसों में दौड़ने लगी थी। जग को जीतने वाला जगजीत का ये अंदाज़ मैने पहले भी कई बार देखा था लेकिन आज माहौल कुछ और ही था। आज जगजीत किसी दूसरे ही जग में थे। ये मंज़र तो बस वहां तक का है जहां तक उन्होंने इस ख़ाकसार की लिखी नज़्म कश्मीर पेश नहीं की थी। दिलों के जज़्बात और पहाड़ों की तहज़ीब बयां करती जो नज़्म उन्होंने लिखवा ली थी उसका मंज़र तो उनकी आवाज़ में बयां होना अभी बाक़ी था।<br /><br />मगर जुनूं को थकान कहां होती.? अपनी मशहूर नज़्म वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी के पीछे जैसे ही उन्होंने पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर बिछाई पूरा मंज़र ही बदल गया। हर मिसरे पर वंसमोर की आवाज़ ने जगजीत जी को बमुश्किल तमाम आगे बढ़ने दिया। आलम ये रहा कि कुल जमा सोलह मिसरों की ये नज़्म वो दस-पंद्रह मिनिट में पूरी कर पाए।<br /><br />दूसरे दिन 10 दिसंबर 2009 की सुबह श्रीनगर के सारे अख़बार जगजीत के जगाए जादू से भरे पड़े थे। अमर उजाला में ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र की हेड लाइन थी और ख़बर में लिखा था - <em>''पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर / चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर / हसीं वादियों में महकती है केसर / कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर / ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र आलोक श्रीवास्तव के इन बोलों को जब जगजीत सिंह का गला मिला तो एसकेआईसीसी का तापमान यकायक गरम हो गया। ये नज़्म की गर्मी थी और सुरों की तुर्शी। ऑडिटोरियम के बाहर का पारा माइनस में ज़रूर था मगर अंदर इतनी तालियां बजीं कि हाथ सुर्ख़ हो गए। स्टीरियो में कान लगाकर सुनने वाले घाटी के लोग और जगजीत सिंह बुधवार को यूं आमने-सामने हुए।''</em><br /><span></span><br />बात थोड़ी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है। और अब ये वीडियो भी देख ही डालिए - <a href="http://www।youtube.com/watch?v=hwegpUJx774">http://www।youtube.com/watch?v=hwegpUJx774</a>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-82597309553317000662009-10-27T17:43:00.003+05:302009-10-27T17:47:53.835+05:30सिलसिला ग़ज़ल का...और इस तरह एक ग़ज़ल का सिलसिला, और पूरा हुआ...<br /><br /><strong>यार, सुना है अंबर ने सिर फोड़ लिया दीवारों से, </strong><br /><strong>आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से. </strong><br /><strong></strong><br /><strong>लफ़्ज़ों की लच्छेबाज़ी पर हमको कब विश्वास रहा,</strong><br /><strong>लेकिन आप कहां समझे थे, दिल की बात इशारों से. </strong><br /><strong></strong><br /><strong>मन में पीड़ा, आंख में आंसू, कभी-कभी ज़ख़्मों के फूल,</strong><br /><strong>ऐसे तोहफ़े ख़ूब मिले हैं, अवसरवादी यारों से.<br /><span class=""></span></strong><br /><strong>दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,</strong><br /><strong>लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.</strong><br /><br /><strong>दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,</strong><br /><strong>चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.</strong><br /><span class=""></span><br />आपकी दुआओं का शुक्रिया.aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com30tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-41504092632905433082009-10-02T13:30:00.005+05:302009-10-02T14:24:04.822+05:30दफ़ीना जो हाथ लगा...कभी-कभी कुछ शे'र दफ़ीने की तरह हाथ लगते हैं. चमकते हैं, झिलमिलाते हैं. लेकिन उनकी क़ीमत का एहसास नहीं जागता. ऐसे ही तीन शे'र महीनों से ज़हन में गड़े पड़े थे. 30 सितम्बर को जबलपुर में जब ये शे'र, कवि भाई प्रदीप चौबे को सुनाए तो उन्होंने कान ऊमेठ कर कहा- 'अबे.. क्यों दबाए रखे हो इन्हें, जल्दी से ग़ज़ल मुकम्मल करो, तीनों शेर ज़ोरदार हैं.' शायरी में प्रदीप जी की बारीक नज़र से कौन वाक़िफ़ नहीं है. मैं तो यहां तक मानता हूं कि 'हास्य-कवि' के रूप में उनकी पहचान किसी दुर्घटना से कम नहीं. वर्ना ग़ज़ल पर उनकी पकड़, उनकी राय ऐसी, जैसे कोई उस्ताद मेहरबां हो जाए. तो हौसला-अफ़्ज़ाई की इसी रोशनी का हाथ थामे कल, बापू और शास्त्री जी के जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर आईसीसीआर, दिल्ली द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में जब ये अशआर पढ़े तो यक़ीन कीजिए वो दाद मिली कि भाई प्रदीप चौबे का सबक़ याद आ गया. ग़ज़ल तो मुकम्मल हो जाएगी, फ़िलहाल शे'र समात फ़रमाएं-<br /><span class=""></span><br /><strong>कल रात सुना है अंबर ने, सिर फोड़ लिया दीवारों से,</strong><br /><strong>आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से.</strong><br /><br /><strong>दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,</strong><br /><strong>चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.</strong><br /><br /><strong>दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,</strong><br /><strong>लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.</strong><br /><p>शुक्रिया प्रदीप भाई.</p>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-734131636850345842009-04-01T12:04:00.006+05:302009-04-06T12:00:02.150+05:30अपने सपनों का एक हिस्सा...<div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhILtVSmfQU94OHKz7HgLMoKUS9nJmYtHD1zrbh05JPuIW8CmNZE3GEC7wmZk9rIqpn8Mpys25brqrFAidHU56OO-eSlma80WblX0_Eax3hvK8QOE64N0Be8Pg5fxhTGTi7fd_T3odoHe73/s1600-h/Jagjit+Aalok.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5321442651233061090" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 240px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhILtVSmfQU94OHKz7HgLMoKUS9nJmYtHD1zrbh05JPuIW8CmNZE3GEC7wmZk9rIqpn8Mpys25brqrFAidHU56OO-eSlma80WblX0_Eax3hvK8QOE64N0Be8Pg5fxhTGTi7fd_T3odoHe73/s320/Jagjit+Aalok.jpg" border="0" /></a> आज आपसे अपने सपने का एक हिस्सा बांट रहा हूं। सपना था कभी जगजीत जी गुनगुना दें और मेरे गीत भी अमर हो जाएं। चंद रोज़ पहले बात हुई थी कि...<br /><br /><em>मंज़िलें बेगानी हो सकती हैं, और रास्ता मुश्किल। लेकिन दिल में हौसला हो, जुनूं की इंतेहा हो तो फ़ासिले ख़ुद सिमटने लगते हैं। ज़मीन, बड़े अब्बा ग़ालिब ने अता की थी और लफ़्ज़ विरासत में मिले थे, सो कहीं जाकर ये ग़ज़ल हुई थी। कोई पंद्रह बरस पहले। आज आपसे बांट रहा हूं।</em><br /><br /><strong>मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है,</strong><br /><strong>हौसला हो तो फ़ासिला क्या है।</strong><br /><br /><strong>वो सज़ा दे के दूर जा बैठा,</strong><br /><strong>किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है।</strong><br /><strong></strong><br /><strong>जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,</strong><br /><strong>सब उसी का है आपका क्या है।</strong><br /><strong></strong><br /><strong>तुम हमारे क़रीब बैठे हो,</strong><br /><strong>अब दवा कैसी, अब दुआ क्या है।</strong><br /><strong></strong><br /><strong>चांदनी आज किसी लिए नम है,</strong><br /><strong>चांद की आंख में चुभा क्या है।</strong><br /><br />आज ये ग़ज़ल अपने मुक़द्दर पर इतराने लगी है। अमर जो हो गई है। ग़ज़ल के सरतार जगजीत सिंह जी ने इसे अपने नए एलबम<strong> इंतेहा</strong> में अपनी आवाज़ की रौशनी से नहला दिया है। और वीडियो में मुझे अपने साथ टहला लिया है। सो आज आपसे अपना वही सपना बांट रहा हूं।<br /><br /><div><br /><a href="http://bigmusic.co.in/Releases/INTEHA/NRL/ProductsDescription.aspx">http://bigmusic.co.in/Releases/INTEHA/NRL/ProductsDescription.aspx</a><br /></div><br /><div></div><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6br6WmIGmmS00wcksNa2kuzvSl9vVwbZwgs3LnwgRK4wGjtz71pL5L43Quw0Mk6WJQoNVKhmE22xhVXNnGk97f7_-DebhI4YIbFzh4IJrx7crgSKfqp0EbYxBNGOUBtQtUzRjpllsBS7F/s1600-h/INTEHA.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5321461109827370914" style="WIDTH: 219px; CURSOR: hand; HEIGHT: 210px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6br6WmIGmmS00wcksNa2kuzvSl9vVwbZwgs3LnwgRK4wGjtz71pL5L43Quw0Mk6WJQoNVKhmE22xhVXNnGk97f7_-DebhI4YIbFzh4IJrx7crgSKfqp0EbYxBNGOUBtQtUzRjpllsBS7F/s320/INTEHA.jpg" border="0" /></a><br /></div><br /><div><strong>आपका ही आलोक</strong></div></div>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com32tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-59701457845290553502009-03-18T15:17:00.002+05:302009-03-18T15:38:47.201+05:30आरज़ू की आरज़ू में...आबरू के बाद बारी आरज़ू की थी, या कहूं कि आरज़ू की आरज़ू में था। ज़हन तैयार था और क़लम बेताब। लेकिन इस वक्फ़े में आरज़ू से जुड़े कुछ तथ्य जुटाने में देर लगी। सो उसके लिए मुआफ़ करें।<br />सिराजुद्दीन अली खां उर्फ़ उर्दू के मशहूर शायर आरज़ू। शेख सिराजुद्दीन के चश्मे-चिराग़। पैदाइश शहर आगरा में हुई। पैदाइश का हवाला 1686 ई में मिलता है और आख़िरी सांस की धमक 1756 ई में आई, बताई जाती है। ख़ान आरज़ू आगरा के रहने वाले थे और शाह मोहम्मद गौस के वशं से थे। बाद में दिल्ली आ गए। जब दिल्ली आए तो उस वक़्त उम्र कोई 24 के क़रीब थी। बांके जवान। तालीम आगरा में ही पूरी कर चुके थे सो उसके लिए दिल्ली का मुंह नहीं ताका। दिल्ली से बेपनाह मुहब्बत थी बावजूद इसके शाहआलम के ज़माने में नवाब सालारजंग के साथ लखनऊ चले गए, वहीं आख़िरी हिचकी ली लेकिन दिल दिल्ली से लगा था सो ख़्वाहिश के मुताबिक़ यहीं दफ़्नाए गए।<br />फ़ारसी के उत्साद और अपने अहद के मशहूर शायर आरज़ू 14 बरस की उम्र से ही शौक़े-शायरी में डूब गए थे। ज़्यादातर फ़ारसी में ही कलाम कहते थे लेकिन इन्होंने उर्दू को ऐसे-ऐसे शागिर्द दिए जिन्होंने उर्दू का आसमान की ऊंचाइयों से रिश्ता क़ायम कर दिया। आरज़ू के शागिर्दों में महज़ एक नाम सैकड़ों पर भारी है- मीर तक़ी मीर।<br /><br /><strong>हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए, </strong><br /><strong>उनकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए।<br /></strong><br />मीर के इस शे'र सा ही हाल था शागिर्दों का अपने उस्ताद के लिए। ख़ान आरज़ू के लिए। आरज़ू का भी अपने शागिर्दों से लगाव कम नहीं था। उनके शागिर्दों में एक नौजवान था। ख़ूबसूरत नौजवान। किसी वजह से कुछ रोज़ वो आरज़ू से मिलने नहीं आया। एक रोज़ आरज़ू राह में कहीं बैठे थे कि अचानक वो नौजवान उधर से गुज़रा। उस्ताद से निगाहें चार हुईं। बुलाया। मगर वो किसी ज़रूरी काम से भागा जा रहा था, रुका नहीं। उस्ताद मायूस हो गए और फ़र्माया-<br /><br /><strong>ये नाज़, ये तौर, लड़कपन में तो न था।</strong><br /><strong>क्या तुम जवान होकर बड़े आदमी हुए !?</strong>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-41805731086700950112009-03-17T13:40:00.004+05:302009-03-17T14:12:06.678+05:30एक ज़रूरी काममंदी के दौर में अगर वाक़ई कुछ ज़्यादा है, तो वो है काम। कमबख़्त इतना काम है कि इस काम के चक्कर में सारे काम ठप्प पड़े हैं। ब्लॉग को ही लीजिए। कितना ज़रूरी काम है ब्लॉग लिखना। मगर रोज़-रोज़ कहां लिख पाते हैं ? बहरहाल, आज अशोक चक्रधर जी की सभा में ब्लॉग पाठ है सो ये नई पोस्ट डालना एक ज़रूरी काम की तरह किया जा रहा है। वैसे अपने हालात फ़ैज़ साहब पहले ही बयां कर गए थे। आप भी समात फ़र्माएं-<br /><br /><strong>वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे</strong><br /><strong>जो इश्क़ को काम समझते थे</strong><br /><strong>या काम से आशिक़ी करते थे</strong><br /><strong>हम जीते जी मसरूफ़ रहे</strong><br /><strong>कुछ इश्क़ किया</strong><br /><strong>कुछ काम किया</strong><br /><strong>काम इश्क़ के आड़े आता रहा</strong><br /><strong>और इश्क़ से काम उलझता रहा</strong><br /><strong>फिर आख़िर तंग आकर हमने</strong><br /><strong>दोनों को अधूरा छोड़ दिया</strong><br /><span class=""></span><br /><span class="">यहां अधूरा छोड़ने की नौबत भर नहीं आई है। आसार पूरे हैं। दुआ कीजिए ऐसे आसार और सिर न उठाएं। आमीन।</span>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-88441971191790319002009-03-04T18:48:00.004+05:302009-03-04T19:10:47.715+05:30ग़ालिब की एक ज़मीनमंज़िलें बेगानी हो सकती हैं, और रास्ता मुश्किल। लेकिन दिल में हौसला हो, जुनूं की इंतेहा हो तो फ़ासिले ख़ुद सिमटने लगते हैं। ज़मीन, बड़े अब्बा ग़ालिब ने अता की थी और लफ़्ज़ विरासत में मिले थे, सो कहीं जाकर ये ग़ज़ल हुई थी। कोई पंद्रह बरस पहले। आज आपसे बांट रहा हूं।<br /><br />मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है,<br />हौसला हो तो फ़ासिला क्या है।<br /><br />वो सज़ा दे के दूर जा बैठा,<br />किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है।<br /><br />जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,<br />सब उसी का है आपका क्या है।<br /><br />तुम हमारे क़रीब बैठे हो,<br />अब दुआ कैसी, अब दवा क्या है।<br /><br />चांदनी आज किसी लिए नम है,<br />चांद की आंख में चुभा क्या है।<br /><br />ख़्वाब सारे उदास बैठे हैं,<br />नींद रूठी है, माजरा क्या है।aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-66166248298861291102009-01-07T11:15:00.007+05:302009-01-07T17:47:27.326+05:30मेरा पैग़ाम मुहब्बत है...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8hH6lSZ7luby5siOoYkntvEKl-gUnHTVqUhFUWWtHlR2N-8gzrq2-7yia7yHFtJy3bgdT4Sr_e2BIqDV561Ql0F8bTayzdDlSTiWYPOOLk0DvcKuk8dW6DitzHHEnqVWwoQ2MWCSoujyh/s1600-h/B-049-0102.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5288464374569941010" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 254px; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8hH6lSZ7luby5siOoYkntvEKl-gUnHTVqUhFUWWtHlR2N-8gzrq2-7yia7yHFtJy3bgdT4Sr_e2BIqDV561Ql0F8bTayzdDlSTiWYPOOLk0DvcKuk8dW6DitzHHEnqVWwoQ2MWCSoujyh/s400/B-049-0102.jpg" border="0" /></a><br /><div></div><div>दहशतगर्दों का मज़हब मैं नहीं जानता। ख़ून-ख़राबे का लहजा भी मुझे नहीं आता। रही बात सियासतदानों की तो उनके लिए जिगर मुरादाबादी फ़र्मा ही गए हैं-<br /><br /><strong>उनका जो फ़र्ज़ है वो अहले-सियासत जानें,<br />मेरा पैग़ाम मुहब्बत है, जहां तक पहुंचे।</strong></div><div></div><div>सो दहशतगर्दी और ख़ून-ख़राबे के इस दौर में जिगर साहब के पैग़ाम को ही हवा दे रहा हूं। अपनी एक नज़्म के ज़रिए-<br /><br /><strong>जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...</strong><br />तो देखो कैसा हुआ उजाला<br />वो ख़ुशबुओं ने चमन संभाला<br />वो मस्जिदों में खिला तबस्सुम<br />वो मुस्कुराया है फिर शिवाला<br /><br />जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...<br />तो जन्नतों से सलाम आए<br />पयम्बरों के पयाम आए<br />फ़रिश्ते अमृत के जाम लाए<br />हवा में दीपक भी झिलमिलाए<br /><br />जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...<br />तो लब गुलाबों के फिर से महके<br />नगर शबाबों के फिर से महके<br />किसी ने रक्खा है फूल फिर से<br />वरक़ किताबों के फिर से महके<br /><br />मुहब्बतों की दुकां नहीं है<br />वतन नहीं है मकां नहीं है<br />क़दम का मीलों निशां नहीं है<br />मगर बता ये कहां नहीं है<br /><br />कहीं पे गीता, क़ुरान है ये<br />कहीं पे पूजा, अज़ान है ये<br />कि मज़हबों की ज़ुबान है ये<br />खुला-खुला आसमान है ये<br /><br />तरक़्क़ियों का समाज जागा<br />कि बालियों में अनाज जागा<br />क़ुबूल होने लगी हैं मन्नत<br />धरा को तकने लगीं हैं जन्नत<br /><strong>जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...</strong></div>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-28432776466537477192008-10-02T14:08:00.011+05:302008-10-06T13:35:42.025+05:30शाहों के शाह आबरू17वीं शताब्दी के शाइरों में एक आबरू भी रौशन हुए। ख़ासे तहज़ीब-पसंद और मिलनसार शायर। आबरू को पढ़ते हुए या कहिए कि आबरू के बारे में पढ़ते हुए दो नाम बराबर सामने आते हैं। पहला- ख़ाने आरज़ू, जिन्हें आबरू अपना कलाम दिखाया करते थे। बावजूद इसके कि ख़ुद आबरू का नाम उनके दौर में ख़ासे मंजे-मंजाए और उस्ताद शाइरों की फ़हरिस्त में हुआ करता था। जिन दो नामों का ज़िक्र कर रहा हूं उसमें दूसरा नाम मीर मख्खन का है। मीर मख्खन, एक बुज़ुर्ग शाह कलाम बुख़ारी के बेटे थे जिससे आबरू को नामालूम क्यों बेपनाह मुहब्बत थी। आबरू के कुछ अश्आर में मीर मख्खन का नाम भी आया है या उनके इशारे मिलते हैं। आबरू अपनी शायरी में हालात के आगे घुटने टेकते नज़र नहीं आते बल्कि उसे मौज़ू बनाते मिलते हैं, मसलन उनकी एक आंख की रौशनी कम पड़ गई थी, और वो बयां कुछ यूं कर रहे थे-<br /><br /><strong>नैन से नैन जब मिलाय गया,<br />दिल के अंदर मेरे समाय गया।<br />तेरे चलने की सुन ख़बर आशिक़,<br />यही कहता हुआ कि- हाय! गया।</strong><br /><br />आबरू, शाह मुबारक के नाम से भी मशहूर हुए। यूं घर वालों ने नाम- नज़मुद्दीन रखा था। आबरू, शाह मुहम्मद ग़ौस ग्वालियरी के वंशज थे और ग्वालियर में ही पैदा हुए थे, मगर दिल से जुड़े फ़नकार दिल्ली से न जुड़ें, ये कैसे हो सकता था ? सो आबरू बचपन में ही दिल्ली चले आए। पैदाइश की तारीख़ का हवाला कुछ साफ़-साफ़ नहीं मिलता लेकिन 1750 ई. में 50 साल से ज़्यादा कि उम्र रही होगी जब दिल्ली में आबरू ने आख़िरी सांस ली । 'आराइशे-माशूक़' के नाम से आबरू ने एक मसनवी की रचना की। एक दीवान भी था जो हालात की नज़्र हुआ। अब आबरू का जो कुछ है यहां-वहां तारीख़ के पन्नों में बिखरा हुआ है, उन्हीं में से कुछ यहां पेश कर रहा हूं-<br /><br /><div align="justify"><br /><strong>बोसा लबों का देने कहा, कहके मुकर गया,<br />प्याला भरा शराब का अफ़सोस गिर गया।<br />क़ौल 'आबरू' का था के' न जाऊंगा उस गली,<br />हो करके बेक़रार देखो आज फिर गया।</strong></div><br /><strong>जुदाई के ज़माने की सजन क्या ज़्यादती कहिए,<br />के' इस ज़ालिम की जो हम पर, घड़ी गुज़री सो जुग बीता।<br />लगा दिल यार से जब उसका, क्या काम 'आबरू' हमसे,<br />के' ज़ख़्मी इश्क़ का फिर मांग के पानी नहीं पीता।</strong><br /><br /><strong>ये रस्म ज़ालिमी की दस्तूर है कहां का,<br />दिल छीन कर हमारा, दुश्मन हुआ है जां का।<br />फिरते ही फिरते दश्त दिवाने किधर गए,<br />वे आशिक़ी के हाय ज़माने किधर गए।<br />मिज़गां तो तेज़तर है, व लेकिन जिगर कहां,<br />तरकश तो हैं भरे प' निशाने किधर गए।</strong><br /><br />निशाने से याद आया, रविवार था। यही गुज़रा रविवार। बाल काफ़ी बढ़ गए थे, सेलून चला गया, कटिंग करवाने। विदिशा से भोपाल और फिर भोपाल से दिल्ली आए ग़ालिबन चार साल हुए। मुझे ठीक-ठीक याद है, दिल्ली आने के दो हफ़्ते बाद ही इलियास भी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से क़स्बे से दिल्ली पहुंचा था। रोज़गार की तलाश में। कोई 15 बरस छोटा है इलियास मुझसे। यहां मेरे घर के पास उसके भांजे का कटिंग-सेलून है। छोटे-क़स्बे और छोटे शहर के लोगों में जमते देर नहीं लगती। मैं पहली बार उस सेलून पर गया और फिर इलियास और मेरे चटखारों का दौर महीने में दो-तीन बार तो तय हो ही गया। जो गुज़रे रविवार तक बदस्तूर जारी है। सेलून इलियास के भांजे का है सो आने-जाने वालों के लिए इलियास भी अब तक इलियास से मामू हो चुके हैं। भोपाल की फ़िज़ाओं और उर्दू में रची-बसी घर की तहज़ीब ने मेरी ज़बान भी 'इलियास' जैसी ही बना दी है। ऐसा दोस्त कहते हैं। ख़ैर ये रविवार, मेरे लिए आम नहीं था और अब इलियास भी मेरे लिए मामू से कम नहीं है, यहां ज़िक्र इसीलिए हो रहा है।<br /><br />'क्या हो रहा है मामू?' मैंने सेलून में घुसते ही इलियास से पूछा। मामू टेंशन में टीवी देख रहे थे, कुछ नहीं बोले और एक ख़ाली पड़ी कुर्सी की तरफ़ इशारा करके मुझे बैठने को कहा। मेरे बैठते ही, कटिंग करने के लिए मामू ने गले में कपड़ा लपेट दिया। उसकी निगाहें अब भी टीवी पर टिकी थीं। वहीं देखते-देखते उसने बाल काटना शुरू कर दिया। लेकिन उसकी आंखों में और कटिंग करने वाली उंगलियों में नफ़ासत एक दम नदारद थी। आज पहली बार ऐसा हो रहा था। डर लग रहा था कि मामू कहीं कान-वान न निपटा दे। मैंने चटखारा लिया- ''कहां खोए हो मामू ?'' मामू कुछ नहीं बोला, बस टीवी की तरफ़ देख कर बुदबुदाया... ''स्साले।'' हाल में दिल्ली में धमाके हुए थे। पकड़ा-धकड़ी जारी थी। मामू पकड़ा-धकड़ी की ख़बरें देख रहा था। मैंने उसे डायवर्ड करना चाहा। छोड़ो मामू, क्या ख़ून ख़राबा देख रहे हो? ''देख रहा हूं इसलिए कि कभी करना पड़े तो कांपू नहीं।'' इलियास की आंखों में ख़ून उतर आया था। मैं धक्क रह गया। लगा कि मैं मामू के निशाने पर हूं।<br /><br />20 साल का इलियास। चार बरस पहले गांव से काम करने दिल्ली आया मासूम इलियास। मेरा प्यारा मामू इलियास। नफ़रत के ज़हर में पूरी तरह सना, मेरे सामने खड़ा था। उसके हाथ की कैंची से मुझे पहली बार डर लग रहा था। तेज़ रफ़्तार के साथ सेलून से घर जाते हुए मन में दहशत तैर रही थी फिर भी ऊपर वाले से मन-ही-मन दुआ कर रहा था कि-<br /><br /><strong>वो दौर दिखा जिसमें इंसान की ख़ुशबू हो,<br />इंसान की सांसों में ईमान की ख़ुशबू हो।</strong><br /><br /><strong>पाकीज़ा अज़ानों में, मीरा के भजन गूंजें,<br />नौ दिन के उपासों में, रमज़ान की ख़ुशबू हो।</strong><br /><br /><strong>मस्जिद की फ़िज़ाओं में, महकार हो चंदन की,<br />मंदिर की हवाओं में लोबान की ख़ुशबू हो।</strong><br /><br /><strong>मैं उसमें नज़र आऊं, वो मुझमें नज़र आए,<br />इस जान की ख़ुशबू में, उस जान ख़ुशबू हो।</strong><br /><br /><strong>हम लोग भी फिर ऐसे बेनाम कहां होंगे,<br />हममें भी अगर तेरी, पहचान की ख़ुशबू हो।</strong><br /><br />आज ईद है और गांधी जयंती भी। नवरात्र भी चल ही रहे हैं। सो आप सबको गांधी जयंती की बधाइयां, ईद बहुत-बहुत मुबारक और नवरात्र की शुभकामनाएं।<br /><strong><span class=""></span></strong><br /><strong>आपका ही आलोक</strong>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-52579956338758330362008-09-17T11:17:00.005+05:302008-09-17T11:32:37.362+05:30उर्दू के आदि-कवि वली दक्कनीवली का शुमार उर्दू-कविता की राह तैयार करने वाले शायरों में होता है। उर्दू शायरी की वो राह जो बाद में शाहराह बनी। वली के पहले ख़ुसरो, रहीम और रसखान जैसे भारतीय-कवियों का ज़्यादातर कलाम या तो फ़ारसी में मिलता है या हिंदी में। लेकिन वली ने एक अलग रंग इख़्तियार किया। वली की भाषा उनके समकालीन-कवियों की ज़बान से अलग जगमगाई। उनके भाव फ़ारसी कविता का लुत्फ़ देते थे तो कहन- नई ताज़गी। धीरे-धीरे फ़ारसी के इश्क़ का जादू, तेसी ज़बान में रंग जमाने लगा और वली की शोहरत ने उनके सिर पर उर्दू के आदि-कवि होने का सेहरा बंधवा दिया। वली अपनी ज़िंदगी में मशहूर हुए और मरने के बाद अमर हो गए। वली की शायरी ग़ज़लों, रुबाइयों, क़तों, क़सीदों और मसनवी से सजी हुई है।<br /><span class=""></span><br /><strong>हुआ है ख़त्म जब यूं दर्द का हाल,</strong><br /><strong>था ग्यारह सौ में इक्कीसवां साल।</strong><br /><br /><strong>कहा हातिफ़ ने यूं तारीख माकूल,</strong><br /><strong>'वली' का है सख़ुन हक़ पास मक़बूल। </strong><br /><strong></strong><br /><strong>सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता,<br />कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।<br /><span class=""></span></strong><br /><strong>सलोने साँवरे पीतम तेरे मोती की झलकाँ ने,<br />किया अवदे-पुरैय्या को खऱाब आहिस्ता आहिस्ता।</strong><br /><br />शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी औरंगाबाद के रहने वाले थे। किताबों में झांकें तो उनका जीवन-काल 1668 से 1744 के दरमियान दर्ज है। वली का बचपन औरंगाबाद की मिट्टी में सना रहा तो बीस बरस की उम्र में उन्होंने अहमदाबाद का रुख़ कर लिया जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। किताबों से हवाला मिलता है कि 1722 के क़रीब वली दिल्ली चले आए।<br /><br /><strong>दिल 'वली' का ले लिया दिल्ली ने छीन,</strong><br /><strong>जा कहो कोई मुहम्मद शाह सूं।</strong><br /><br />वली का ये शे'र इस बात की तस्दीक़ है कि वो न सिर्फ़ दिल्ली में लंबे अर्से तक रहे बल्कि यहां कि तबज़ीब से ख़ासे मुतआस्सिर भी हुए। जब वली दिल्ली पहुंचे, सुख़न-नवाज़ों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। महफ़िलें सजने लगीं, शायर चहकने लगे, लेकिन जो आवाज़ निकलती वो वली की आवाज़ से मेल खाती नज़र आती। अब तक वली के दिल पर दिल्ली और दिल्ली के दिल पर वली का नाम रौशन हो चुका था। दिल्ली में वली को वो सम्मान मिला कि शाही दरबार में हिंदी के जो पद गाए जाते थे उनकी जगह वली की ग़ज़लें गाई जाने लगीं। मगर फ़ितरतन यायावर वली ने देर तक किसी एक जगह कयाम नहीं किया बल्कि दूर-दूर का सफ़र करते रहे। गुजरात उन्हें सबसे ज़्यादा अज़ीज़ था। वही (अहमदाबाद में) 1744 में उन्होंने आख़िरी सांस ली। क़ब्र अहमदाबाद बनी, मगर अफ़सोस गुजरात के कुछ तथाकथित 'चाहने वालों' ने गुजरात के दंगों की आड़ में इस सच्चे महबूब की क़ब्र को भी नेस्तनाबूत कर दिया। मुझे बहादूर शाह ज़फ़र का ये शे'र याद आया-<br /><br /><strong>कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए,</strong><br /><strong>दो गज ज़मीं भी न मिली कू-ए-यार में।</strong><br /><br />गुजरात दंगों के दौरान मुझसे एक मतला हुआ था, जो बाद में कुछ शे'रों का साथ पाकर ग़ज़ल बन गया। अनीश प्रधान को जी ग़ज़ल इतनी पसंद आई की उन्होंने इसकी एक प्यारी-सी धुन बना डाली, और अपने अगले एल्बम के लिए शुभा मुद्गल जी ने इसे अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर लिया- <br /><br />आसमानों में ताकता क्या है,<br />तेरी धरती पे अब बचा क्या है।<br /><br />दूर तक ख़्वाब की मज़ारें हैं,<br />सूनी आंखों में ढूंढता क्या है।<br /><br />गुज़रे लम्हों की धूल उड़ती है,<br />इस हवेली में अब रखा क्या है।<br /><br />चांदनी आज किस लिए नम है,<br />चांद की आंख में चुभा क्या है।<br /><br />जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,<br />सब उसी का है आपका क्या है।<br /><br />वो सज़ा दे के दूर जा बैठा,<br />किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है।aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7645691603338724926.post-947144301467939602008-09-05T16:28:00.000+05:302008-09-05T18:56:34.898+05:30शुरुआत ब्लॉग की...<img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5242498777309175362" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhajZ6IU_Ch-bCdTCl0CiCE_ip69qd2j02hdr54yFNyG6MdU7_sGfQMNWE4ZOrJWpxbcfIq_WOwE_H-IY5v9TCcNRAcpJHkmkV2UxhWp2xzXM0C-fU0FaZbjvfM07mBig87qqxCpSw21Qw/s320/01%5B1%5D.+Shubha+Ji+%26+Ashok+Ji+croped.JPG" border="0" /><span class="">वादे</span> के मुताबिक़ <strong>अमीर ख़ुसरो</strong> के बाद <strong>वली</strong> पर लिखा जाना था मगर मेरे अग्रज-कवि भाई <strong>अशोक चक्रधर </strong>आदतन अपना हर काम पूरी शिद्दत से करते हैं, फिर चाहे वो इंटरनेट पर हिंदी का बोलबाला देखने का जुनून हो, जयजयवंती की साहित्यिक मासिक गोष्ठियां हों या फिर अपने किसी 'डियर' की पुस्तक का विमोचन या 'ब्लॉगार्पण' अशोक जी का काम पूरे मन का काम होता है. इस बार उन्होंने अपने इस डियर का 'ब्लॉगार्पण' भी धूमधाम से कराया. जिसका गवाह बना दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर का भरा-पूरा गुलमोहर. तो सोचा कि क्यों न ये लम्हे भी आपके साथ बांटता चलूं.<br /><span class=""></span><br />दरअस्ल 'ब्लॉगर' बनने का इंफ़ेक्शन भी अशोक जी की तरफ़ से ही मुझ तक आया, इलाज ज़रूरी था सो इस मर्ज़ के हकीम बने भाई पीयूष पांडे जिन्होंने मुझे itzmyblg.com से जोड़ा. पीयूष जी न जाने क्यों मुझे बहुत कुछ मान बैठे हैं. मेरे ब्लॉग को आशा ने बड़े मन से तैयार किया. आशा, पीयूष जी की टीम की सिपहसालार है और उन लोगों में है जिनकी लगन और क़ाबलियत की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. सो इन सबका दिल से शुक्रिया.<br /><span class=""></span><br />अब शुक्राना उस शख़्सियत का जिनकी अहमियत, मेरी ज़िंदगी में किसी दुआ से कम नहीं है. मेरी बड़ी बहन <strong>शुभा मुदगल</strong>. शुभा दीदी को सोचते ही <strong>डॉ. बशीर बद्र</strong> का एक शे'र कुछ यूं याद आता है-<br /><span class=""></span><br />गले में उनके ख़ुदा की अजीब बरकत है,<br />वो बोलती हैं तो इक रौशनी-सी होती है.<br /><span class=""></span><br />इस ब्लॉग में कविता का सफ़र 12वीं सदी से शुरू हो रहा है और हम अपनी शिनाख़्त की कोशिश कर रहे हैं. उन जड़ों को तलाश रहे हैं जिन पर हमारी तहज़ीब का भरा-पूरा दरख़्त खड़ा है. संगीत की दुनिया में शुभा दीदी <strong>अंडरस्कोर रिकॉर्ड्स</strong> के ज़रिए ये मुहिम बरसों से चला रही हैं. तो उनसे बेहतर और कौन हो सकता था जो कविता में इस संकल्प के लिए मेरी पीठ पर हाथ रखता, मुझे हौसला देता. अपनी मसरूफ़ियत के बावजूद वो आईं और उन्होंने ब्लॉग रिलीज़ किया. फ़िज़ा में दुआएं गूंजीं और मेरा संकल्प मज़बूती की एक और सीढ़ी चढ़ गया. मेरा वो गीत जो शुभा दीदी की आवाज़ मे ज़िंदा है, यहां वही पेश कर रहा हूं. 'ब्लॉगार्पण' की तस्वीर के साथ.<br /><span class=""></span><br />आओ सोचें ज़रा...<br />हमने क्या-क्या किया<br /><span class=""></span><br />सांसें यूं ही गईं<br />क्या मिला, कुछ नहीं?<br />हम जहां से चले<br />आ गए फिर वहीं<br />दिल ने जो भी कहा<br />हमने क्या वो सुना?<br />आओ सोचें ज़रा...<br /><span class=""></span><br />कोई हमसे अलग<br />जाएगा भी किधर<br />वक़्त भी आएगा<br />शर्त ये है मगर<br />अपनी आवाज़ में<br />कौन देगा सदा?<br />आओ सोचें ज़रा...<br /><span class=""></span><br />भूल कर चाहतें<br />छीन कर राहतें<br />बांट कर नफ़रतें<br />खींच कर सरहदें<br />हाथ क्या आएगा<br />साथ क्या जाएगा?<br />आओ सोचें ज़रा...<br /><br />इस वादे के साथ कि अगली मुलाक़ात <strong>वली</strong> की शायरी के साथ होगी. <strong>आमीन.<br /><br /></strong><strong></strong>aalok shrivastavhttp://www.blogger.com/profile/11326346129473048021noreply@blogger.com4