Friday, August 29, 2008

अपनी शिनाख़्त

हर वक़्त फ़िज़ाओं में महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूं, महकूंगा ज़मानों तक

प्यार लुटाना कोई आसान काम नहीं। कलेजा चिर जाता है. अपने दुखों को तकिए के नीचे रख कर सुखों का ख़्वाब दिखाने वाले कितने हैं ? और उन कितनों को याद करने वाले आज कितने हैं? ज़रा सोचिए, हम कहां आ गए हैं? ज़रूरी ये नहीं कि हम हर एक कोने हर क्षेत्र में जाएं और उन युग पुरुषों की पड़ताल करें. ज़रूरी ये है कि हम जिस दुनिया में सांस ले रहे हैं, जिसमें जी रहे हैं या फिर जो दुनिया हममें धड़क रही है. बस उसी की शिनाख़्त करते चलें. शायद इस शिनाख़्त के दौरान ही, हमें कहीं अपना पता-ठिकाना मिल जाए.


मैं शायरी के उस घराने को सलाम करता हूं जिसकी बुनियाद
12वीं शताब्दी में रखी गई थी। तब ग़ज़ल सिर्फ़ ग़ज़ल हुआ करती थी. हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल नहीं. लिहाज़ा अपने ब्लाग का ये पहला पोस्ट भी 'ग़ज़ल-घराने' के 'बड़े अब्बा' यानी हज़रत अमीर ख़ुसरो की नज़्र कर रहा हूं. ख़ुसरो यानी मुहब्बत और इबादत का दूसरा नाम. ख़ुसरो यानी खड़ी बोली की कविता का अलमबरदार कवि. ख़ुसरो यानी शायरी का वो रौशन नाम जो बिना शक हिंदी और उर्दू दोनों के आदिकवि हैं. 1255 ई. में उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में पैदा हुए अबुलहसन उर्फ़ अमीर ख़ुसरो फ़ारसी, अरबी, तुर्की और हिंदी के विद्वान थे. ख़ुसरो जिनके जीवन-काल में दिल्ली के तख़्त ने 11 सुलतानों का हुक्म सुना और इन 11 में से 7 सुलतानों ने अपने दरबार में अमीर ख़ुसरो की शायरी सुनी. ख़ुसरो को जानने वालों ने, अपनी रहती ज़िंदगी तक इस सुफ़ी कवि के समर्पण की क़समें खाईं. 1324 ई. में हिंदुस्तानी अदब को अलग-अलग विधाओं क़रीब 100 बेशक़ीमती किताबें, कई राग-रागनियां और मीठे-मीठे वाद्य-यंत्र देकर ये हरफ़नमौला शायर अपने महबूब, अपने गुरू हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के पास जाकर हमेशा-हमेशा के लिए सो गया, ये कहते हुए कि-


गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहु देस।।

आज आप और हम जिसे ग़ज़ल कहके गुनगुनाते है, अपने माज़ी या अपने आज में कहीं डूब जाते हैं उसकी बुनियाद रखने वाला भी कोई और नहीं अमीर ख़ुसरो ही थे. ये और बात कि तब ख़ुसरो के घर में ग़ज़ल ने 'रेख़ता' के नाम से आंखें खोलीं थीं. उनके एक मशहूर रेख़ते के दो शेर यहां आप सबकी नज़्र हैं-

ज़े हाले मिसकीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैना बनाए बतियां,
कि ताबे हिजरां न दारमे-जां न लेहु काहे लगाय छतियां।

शबाने हिजरां दराज़ चूं ज़ुल्फ़ो-रोज़े वसलत चूं उम्र कोतह,
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अमीर ख़ुसरो के महबूब थे, और इस ख़ाकसार के महबूब हैं- अमीर ख़ुसरो. ख़ुसरो ने निज़ामुद्दीन औलिया को ध्यान में रख कर रचनाएं कहीं अपने गुरू से मुहब्बत की, और साथ-साथ अपनी शिनाख़्त भी. इस नाचीज़ ने ख़ुसरो को उन्हीं के मिसरे पर ग़ज़ल कह कर याद किया. अपनी जड़ों की शिनाख़्त की और इस तरह अपना पता-ठिकाना तलाश करने की कोशिश की-

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां,
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो , कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां।

दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ , मैं करना चाहूं नज़र से बतियां।

ये इश्क़ क्या है , ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती सांसे , तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां।

उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुश्बू,
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा , किसी दरस में पिरोलूं अंखियां।

मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते ,
न काग बोले , न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां।

अपनी जड़ों से जुड़ने का ये सिलसिला अब यूं ही जारी रहेगा ताकि हम और आप अपनी शिनाख़्त कर सकें. आमीन.