नेह भी अजीब होता है.!? जो समझ ले सूफ़ी हो जाता है और जो न समझे वो बावरा। कभी ऐसी ही एक बावरी का चेहरा बुना था। नासमझ बावरी। सोचा, चलो इसे नेह के मायने समझाऊं तो काग़ज़ पर चंद मासूम से मिस्रों की शक्ल उभर आई। एक नज़्म ने करवट ली और नींद से जाग कर बोली - 'चलो, अब जगाया है तो मुझे गुनगुनाओ भी.!'
मैं ठहरा निरा बेसुरा.! उस नज़्म को भला मैं क्या गुनगुनाता.? तो मेरे लिए ये मुश्किल हमेशा की तरह शुभा दीदी ने आसान कर दी। कमाल का गाया। जैसा वो सदा गाती हैं।
जब उन्होंने गाया तो मुझे आपके लिए अपना फ़र्ज़ याद आया। सोचा, आपसे उस गुनगुनाहट को बांटूं जिसने मुझे भी अपनी ख़ुमारी में ले रखा है।
फ़िलहाल यहां उस नज़्म को लफ़्ज़ों का चेहरा दे रहा हूं। ऑडियो क्लिप की खिड़की खोल कर शुभा दीदी की आवाज़ का ख़ुशबूदार झौंका भी आप जल्द ही महसूस कर पाएंगे। आमीन।
ओ री बावरी, समझा तो कर
नेह बोलियां।
चांद गगन में पूरा क्यूं है
पूनम का मुख उजला क्यूं है
क्यूं मिलता है सुब्ह से सूरज
शाम का चेहरा पीला क्यूं है
समझा तो कर.!
सुन तो ज़रा मीरा की तानें
क्या कहती हैं रोज़ अज़ानें
ख़ुशबू आख़िर,ख़ुशबू क्यूं है
धरती पर मैं और तू क्यूं हैं
समझा तो कर.!
भेद जिया के ऐसे वैसे
खोल दिए आंखों ने कैसे
कुछ भी नहीं तो फिर ये हया क्यूं
कुछ भी नहीं है, ऐसा कैसे
समझा तो कर.!
Thursday, July 21, 2011
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