Wednesday, January 7, 2009

मेरा पैग़ाम मुहब्बत है...


दहशतगर्दों का मज़हब मैं नहीं जानता। ख़ून-ख़राबे का लहजा भी मुझे नहीं आता। रही बात सियासतदानों की तो उनके लिए जिगर मुरादाबादी फ़र्मा ही गए हैं-

उनका जो फ़र्ज़ है वो अहले-सियासत जानें,
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है, जहां तक पहुंचे।
सो दहशतगर्दी और ख़ून-ख़राबे के इस दौर में जिगर साहब के पैग़ाम को ही हवा दे रहा हूं। अपनी एक नज़्म के ज़रिए-

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...
तो देखो कैसा हुआ उजाला
वो ख़ुशबुओं ने चमन संभाला
वो मस्जिदों में खिला तबस्सुम
वो मुस्कुराया है फिर शिवाला

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...
तो जन्नतों से सलाम आए
पयम्बरों के पयाम आए
फ़रिश्ते अमृत के जाम लाए
हवा में दीपक भी झिलमिलाए

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...
तो लब गुलाबों के फिर से महके
नगर शबाबों के फिर से महके
किसी ने रक्खा है फूल फिर से
वरक़ किताबों के फिर से महके

मुहब्बतों की दुकां नहीं है
वतन नहीं है मकां नहीं है
क़दम का मीलों निशां नहीं है
मगर बता ये कहां नहीं है

कहीं पे गीता, क़ुरान है ये
कहीं पे पूजा, अज़ान है ये
कि मज़हबों की ज़ुबान है ये
खुला-खुला आसमान है ये

तरक़्क़ियों का समाज जागा
कि बालियों में अनाज जागा
क़ुबूल होने लगी हैं मन्नत
धरा को तकने लगीं हैं जन्नत
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत...