Thursday, December 1, 2011

यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

यादों के पर्दे लहराते रहते हैं। सुबह-सुबह जब आंखें खोलीं तो सर्दी में ठिठुरता बचपन याद आ गया। बचपन, जो हम जैसे क़स्बाइयों के साथ पंद्रह-सोलह बरस तक रहता है।

ऐसे ही सर्द दिनों में अपना विदिशा कुछ ज़्यादा रचनात्मक हो जाता था। सर्दियों में साहित्यिक सरगर्मियां बढ़ जाती थीं, चौक-चौराहों पर कवि-सम्मेलन-मुशायरे जी उठते थे। जब-जब ऐसा मौक़ा आता हम अम्मा का शॉल लपेटे सबसे पहले जाकर, पहली सफ़ में डट जाते थे। एक-एक कवि-शायर को सुबह तक ऐसे सुनते जैसे फ़ज्र की नमाज़ इन्हीं के हक़ में अदा करनी हो।

ऐसी ही एक रात में आगे की क़तार पकड़े बैठे हम, बार-बार हैरत से उस ओर देख रहे थे जहां सजे-धजे कवियों की क़तार के छोर पर, खांटी गांव के लिबास में एक दद्दू बैठे थे। 'अबे जे कोन है?' साथ आए दोस्त ने बुदबुदाकर हमसे पूछा और हमने हुमक कर यही सवाल पडौसी से पूछ लिया। पास जो बैठा था, ज़हीन था, और कवि-सम्मेलनों-मुशायरों का हमसे बड़ा मुरीद जान पड़ रहा था। बोला - अदम गोंडवी।

'अबे जे हैं अदम गोंडवी? लगते तो किसी गांव-देहात के सरपंच हैं।' दोस्त ने जुमला उछाला मगर अदम गोंडवी का नाम सुनते ही हमारे ज़हन में उस ग़ज़ल के सारे शे'र सरसराहट की तरह तैर गए, जो तब हाल में ही कहीं पढ़ी थी । आंखें इस ख़ुशी से चमक उठीं कि हम अदम गोंडवी के सामने बैठे हैं कि हम आज अदम गोंडवी को रूबरू सुनेंगे।

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें,
संसद बदल गयी है यहां की नख़ास में।

जनता के पास एक ही चारा है बगावत,
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।

वाक़ई, यादों के पर्दे लहराते रहते हैं। सुबह-सुबह जब आंखें खोलीं तो सर्दी में ठिठुरता बचपन याद आ गया। पहली बार अदम दद्दू को अपने सामने देख कर जो सरसराहट पैदा हुई थी वही सरसराहट मित्र चण्डीदत्त शुक्ल का लेख पढ़ कर एक बार फिर होने लगी। बचपन में अदम को सुनने से लेकर, उनके साथ कई-कई मंचों पर कविता सुनाने, साथ आने-जाने और वक़्त बिताने के कितने ही मंज़र आंखों में एक साथ तैर गए।

आम इंसानी ज़िंदगी की जद्दोजहद को ग़ज़ल बनाने वाले हम सबके प्यारे अदम दद्दू अस्पताल में ज़िंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं। ज़हन पर अजीब सी फ़िक्र तारी हो गई। अभी कुछ रोज़ पहले ही तो ऑफ़िस आए थे, सबसे मिले थे। दिल्ली के हिंदी भवन में भले-चंगे दिखे थे। फिर अचानक ये क्या हुआ?

फ़ोन घनघनाया तो पता लगा पुराना नंबर भी बदल गया है। नया नंबर तलाशा। चण्डीदत्त से ही नया नंबर मिला। दोपहर तक अदम दद्दू की आवाज़ से मुख़ातिब हुए तो सांसों की रफ़्तार क़ाबू में आई। आदाब के बाद उधर से दद्दू की आवाज़ ठनठनाई - 'जीयो प्यारे। हम ठीक हैं। फ़िक्र थी, सो अब टल गई। जल्दी मिलेंगे।'

मिलना ही होगा दद्दू क्योंकि आप जैसे क़लमकार दुनिया को कम ही मिलते हैं। आप जैसों को पढ़-सुन कर कई नस्लों के ज़हन खुलते हैं। कई फसलें पका करती हैं, नई क़लमें जवां होती हैं। मिलना ही होगा दद्दू क्योंकि अभी रामराज को विधायक निवास से बाहर लाना है। बग़ावत का परचम भ्रष्ट-फ़ज़ा में लहराना है। आपकी शख़्सियत और कविता का मतलब, दुनिया को अभी कुछ और समझाना है। 'यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।'

Friday, October 14, 2011

ऐसे भी जाता नहीं कोई...

मुंबई से लौटकर...

जबसे जगजीत गए तब से क़ैफ़ी साहब के मिसरे दिल में अड़े हैं - ‘रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई, तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई।’ और दिल है कि मानने को तैयार नहीं। कहता है - 'हम कैसे करें इक़रार, के' हां तुम चले गए।'

'24, पुष्प मिलन, वार्डन रोड, मुंबई-36.' के सिरहाने से झांकती 11 अक्टूबर की सुबह। अपनी आंखों की सूजन से परेशान थी। इस सुबह की रात भी हम जैसों की तरह कटी। रो-रो कर।

सूरज को काम संभाले कोई दो घंटे गुज़र चुके थे। जगजीत जी के घर 'पुष्प मिलन' के सामने गाड़ियों का शोर मचलने लगा, मगर चेहरों की मायूसी, आंखों की उदासी और दिलों के दर्द पर कोई शोर, कोई हलचल, कोई हंगामा तारी नहीं हो पा रहा था। जिस आंख में झांकों, वही कह रही थी - 'ग़म का फ़साना, तेरा भी है मेरा भी।'

चेहरों की बुझी-इबारत पढ़ता-बांचता, पैरों में पत्थर बांधे मैं जैसे-तैसे दूसरे माले की सीढ़ियां चढ़ पाया। ग़ज़ल-गायिकी का जादूगर यहीं सो रहा था। '24, पुष्प मिलन' का दरवाज़ा खुला था। भीतर से जगजीत की जादुई आवाज़ में गुरुबानी महक रही थी। म्यूज़िक रूम का कत्थई दरवाज़ा खोला तो सफ़ेद बर्फ़ की चादर में लिपटा आवाज़ का फ़रिश्ता सो रहा था । मुझे देखते ही विनोद सहगल गले लग गए और सिसकते हुए बोले - 'थका-मांदा मुसाफ़िर सो रहा है, ज़माना क्या समझ के रो रहा है।' मगर दिल इस दर्द से आंसूओं में बदल गया कि दुनिया के ज़हनो-दिल महकाने वाली एक मुक़द्दस आवाज़ ख़ामोश सो गई है। अब कोई चिट्ठी नहीं आने वाली। अब प्यार का संदेस नहीं मिलने वाला। अब दुनिया की दौलतों और शोहरतों के बदले भी बचपन का एक भी सावन नहीं मिलने वाला। न काग़ज़ की कश्ती दिखने वाली और न बारिश का पानी भिगोने वाला। अब न ग़ज़ल अपनी जवानी पर इतराने वाली और न शायरी के परस्तार मखमली आवाज़ के इस जादूगर से रूबरू होने वाले।

'हमें तो आज की शब, पौ फटे तक जागना होगा / यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ।' किसी सितारे को टूटते देखना कभी। आसमान के उस आंचल को पलटकर कर देखना, जहां से वो सितारा टूटा है। उस टूटे हुए सितारे की जगह झट से कोई दूसरा तारा ले लेता है। जगमगाने लगता है उस ख़ला में, जहां से टूटा था कोई तारा। मगर चांद को ग़ायब होते देखा कभी? उसकी जगह अमावस ही आती है बस। अमावस तो ख़त्म भी हो जाती है एक दिन। मगर ये अमावस तो ख़त्म होने रही- कमबख़्त।

जगजीत सिंह, जिन्हें कबसे 'भाई' कह रहा हूं, याद नहीं। एकलव्य की तरह कबसे उन्हें अपना द्रौणाचार्य माने बैठा हूं बताना मुश्किल है। कितने बरस हुए जबसे मुरीद हूं- उनका, गिनना चाहूं भी तो नहीं गिन सकता। हां, एक याद है जो कभी-कभी बरसों की धुंधलाहट पोंछकर झांक लेती है और वो ये कि उनकी परस्तारी दिल पर तबसे तारी है जब ईपी या एलपी सुन-सुन कर घिस जाया करते थे। ग्रामोफ़ोन की सुई उनकी आवाज़ के किसी सुरमयी सिरे पर अक्सर अकट जाया करती थी और टेपरिकॉर्डर में ऑडियो कैसेट की रील लगातार चलते-चलते फंस जाया करती थी।

थोड़ा-थोड़ा ये भी याद है कि तब हमारी गर्मियों की छुट्टियां और उनकी तपती दोपहरें आज के बच्चों की तरह एसी कमरों में टीवी या कम्प्यूटर के सामने नहीं बल्कि जगजीत-चित्रा की मखमली आवाज़ की ठंडक में बीता करती थीं। उन दिनों किताबों के साथ-साथ इस तरह भी शायरी की तालीम लिया करते थे। लफ़्ज़ों के बरताओ को यूं भी सीखा करते थे। अपने अंदर एकलव्य को पाला पोसा करते थे।

भाई की किसी ग़ज़ल या नज़्म का ज़हनो-दिल में अटके रह जाने का टोटका हम अक्सर बूझते मगर नाकाम ही रहते। इस तिलिस्म का एक वरक़ तब खुला जब डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़ल भाई की आवाज़ में महकी। 'दिन भर सूरज किसका पीछा करता है / रोज़ पहाड़ी पर जाती है शाम कहां।' मैंने फ़ोन लगाया और पूछा - 'ये ग़ज़ल तो बड़ा अर्सा हुआ उन्हें आपको दिए हुए। अब गाई?' जवाब मिला - 'ग़ज़ल दिल में उतरती है तभी तो ज़ुबान पर चढ़ती है।' ..तो ग़ज़ल को अपने दिल में उतारकर, फिर उसे करोड़ों दिलों तक पहुंचाने का हुनर ये था.! तब समझ में आया। अर्से तक गुनगुनाते रहना और फिर गाना तो छा जाना। ये था जगजीत नाम का जादू।

कोई पंद्रह बरस पहले की बात होगी। मुंबई में जहांगीर आर्ट गैलरी से सटे टेलीफ़ोन बूथ से उन्हें फ़ोन लगाया। अपने दो शे'र सुनाए - 'वो सज़ा देके दूर जा बैठा / किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है। जब भी चाहेगा, छीन लेगा वो / सब उसी का है आपका क्या है।' आसमान से लाखों बादलों की टोलियां गुज़र गईं और ज़मीन से जाने कितने मौसम। मगर ये दो शे'र भाई की यादों में धुंधले नहीं पड़े। तब से इस ग़ज़ल को मुकम्मल कराने और फिर एलबम 'इंतेहा' में गाने तक मुझे जाने कितनी बार उनसे अपने ये शे'र सुनने का शरफ़ हासिल हुआ। चार शे'र की इस ग़ज़ल के लिए चालीस से ज़्यादा शे'र कहलवाए उन्होंने। और मतला। उसकी तो गिनती ही नहीं। जब जो मतला कह कर सुनाता, कहते - 'और अच्छा कहो।' ग़ज़ल को किसी उस्ताद की तरह 24 कैरेट तक संवारने का हुनर हासिल था उन्हें। आप उनसे किसी ग़ज़ल के लिए या किसी ग़ज़ल में से, ख़ूबसूरत अश्आर चुनने का हुनर बख़ूबी सीख सकते थे।

'अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं / रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से / किसको मालूम कहां के हैं किधर के हम हैं।' ठीक। माना। मगर इस फ़िलॉसफ़ी के पीछे भी एक दुनिया होती है। दिल की दुनिया। जहां से एक उस्ताद, एक रहनुमा और एक बड़े भाई का जाना दिल की दो फांक कर देता है। जिनके जुड़ने की फिर कोई सूरत नज़र नहीं आती। समेटना चाहो तो सैकड़ों एलबम्स, हज़ारों कॉन्सर्ट्स और अनगिनत सुरीली ग़ज़लें-नज़्मे। इतने नायाब, ख़ूबसूरत और यादगार तोहफ़ों का कभी कोई बदल नहीं हो सकता। 'जाते-जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया / उम्र भर दोहराऊंगा ऐसी कहानी दे गया।'

जिसने अपनी आवाज़ के नूर से हमारी राहें रौशन कीं। हम जैसों को ग़ज़ल की इबारत, उसके मआनी समझाए। उसे बरतना और जीना सिखाया। शायरी की दुनिया में चलना सिखाया। उसे आख़िरी सफ़र के अपने कांधों पर घर से निकालना ऐसा होता है जैसे - 'उसको रुख़सत तो किया था मुझे मालूम न था / सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।' जग जीत कर जाने वाले जगजीत भाई हम आपका क़र्ज़ कभी नहीं उतार पाएंगे।

आजतक में जगजीत जी के आख़िरी इंटरव्यू का लिंक -
http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/65682/2/0/Exclusive-Ghazal-king-Jagjit-Singhs-last-interview.html

Monday, October 10, 2011

अमर हो गई 'जग जीत' ने वाली आवाज़

उन्हीं ने गाया था - '...मेरा गीत अमर कर दो।' किसे पता था कि इतनी जल्दी हमें कहना पड़ेगा - 'कहां तुम चले गए?'

आज ग़ज़ल गायिकी की एक मुक़द्दस किताब बंद हुई तो उससे सैकड़ों यादों में से एक सफ़्हा यूं ही खुल गया। बात थोड़ी पुरानी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है। ठीक वैसे जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं। ठीक वैसे ही जैसे एक मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी हमेशा आसपास ही कहीं सुनाई देती रहेगी।

जगजीत भाई यूएस में थे, वहीं से फ़ोन किया - 'आलोक, कश्मीर पर नज़्म लिखो। एक हफ़्ते बाद वहां शो है, गानी है।' मैंने कहा - 'मगर में तो कभी कश्मीर गया नहीं। हां, वहां के हालाते-हाज़िर ज़रूर ज़हन में हैं, उन पर कुछ लिखूं।?' 'नहीं कश्मीर की ख़ूबसूरती और वहां की ख़ुसूसियात पर लिखो, जिनकी वजह से कश्मीर धरती की जन्नत कहा जाता है। दो रोज़ बाद दिसंबर को इंडिया आ रहा हूं तब तक लिख कर रखना। सुनूंगा।' जगजीत सिंह, जिन्हें कब से 'भाई' कह रहा हूं अब याद नहीं। भाई का हुक्म था, तो ख़ुशी के मारे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। मगर वही पांव कांप भी रहे थे कि इस भरोसे पर खरा उतर भी पाऊंगा, या नहीं।? जगजीत भाई के साथ 'इंतेहा' (एलबम) को आए तब कुछ वक़्त ही बीता था। फ़िज़ा में मेरे लफ़्ज़ भाई की मखमली आवाज़ में गूंज रहे थे और दोस्त-अहबाब पास आकर गुनगुना रहे थे- मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है / हौसला हो तो फ़ासला क्या है।''

सर्दी से ठिठुरती रात थी। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुशायरा था। डाइज़ शायरों से सजा था। रात के कोई ग्यारह बजे होंगे। मैं दावते-सुख़न के इंतज़ार में था कि तभी मोबाइल घनघनाया। वादे के मुताबिक़ जगजीत भाई लाइन पर थे और मैं उस नज़्म की लाइनें याद करने लगा जो सुबह ही कहीं थीं। 'हां, सुनाओ, कहा कुछ.?' 'जी, मुखड़े की शक्ल में दो-चार मिसरे कहे हैं।' 'बस, दो-चार ही कह पाए... चलो सुनाओ।' मैंने डरते हुए अर्ज़ किया -

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

''हां अच्छा है, इसे आगे बढ़ाओ।'' जो जगजीत भाई को क़रीब से जानते थे, वो ये मानते होंगे कि उनका इतना कह देना ही लाखों दानिशमंदों की दाद के बराबर होता था। 'जी, परसों संडे है, उसी दिन पूरी करके शाम तक नोट करा दूंगा।' उनके ज़हन में जैसे कोई क्लॉक चलता है, सोचा और बोले - 'अरे उसके दो रोज़ बाद ही तो गानी है, कम्पोज़ कब करूंगा। और जल्दी कहो।' मगर मैंने थोड़ा आग्रह किया तो मान गए। दो रोज़ बाद फ़ोन लगाया तो कार से किसी सफ़र में थे 'क्या हो गई नज़्म, नोट कराओ।' मैंने पढ़ना शुरू किया-

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत
यहां की ज़बां है बड़ी ख़ूबसूरत
यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत
यहां की हवाएं भी ख़ुशबू से हैं तर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे
ये वादी में हंसते हुए फूल सारे
यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे
फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना
अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना
ये पीरों फ़कीरों का है आशियाना
यहां सर झुकाती है क़ुदरत भी आकर
ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र

''अच्छी है, मगर क्या बस इतनी ही है।?'' मैंने कहा - ''जी, फ़िलहाल तो इतने ही मिसरे हुए हैं।'' ''चलो ठीक है। मिलते हैं।''

एक बर्फ़ीली शाम 4 बजे श्रीनगर का एसकेआईसीसी ऑडिटोरियम ग़ज़ल के परस्तारों से खचाखच भरा, ग़ज़ल गायिकी के सरताज जगजीत सिंह का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। कहीं सीटियां गूंज रहीं थीं तो कहीं कानों को मीठा लगने वाला शोर हिलोरे ले रहा था और ऑडिटोरियम की पहली सफ़ में बैठा मैं, जगजीत भाई की फ़ैन फ़ॉलॉइंग के इस ख़ूबसूरत नज़ारे का गवाह बन रहा था। जगजीत भाई स्टेज पर आए और ऑडिटोरियम तालियों और सीटियों की गूंज से भर गया और जब गुनगुनाना शुरू किया तो माहौल जैसे बेक़ाबू हो गया। एक के बाद एक क़िलों को फ़तह करता उनका फ़नकार हर उस दिल तक रसाई कर रहा था जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ून ही गर्दिश कर सकता है। उनकी आवाज़ लहू बन कर नसों में दौड़ने लगी थी।

जग को जीत ने वाला जगजीत का ये अंदाज़ मैने पहले भी कई बार देखा था लेकिन उस रोज़ माहौल कुछ और ही था। उस रोज़ जगजीत भाई किसी दूसरे ही जग में थे। ये मंज़र तो बस वहां तक का है जहां तक उन्होंने 'कश्मीर नज़्म' पेश नहीं की थी। दिलों के जज़्बात और पहाड़ों की तहज़ीब बयां करती जो नज़्म उन्होंने लिखवा ली थी उसका मंज़र तो उनकी आवाज़ में बयां होना अभी बाक़ी था। मगर जुनूं को थकान कहां होती।? अपनी मशहूर नज़्म वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी के पीछे जैसे ही उन्होंने पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर बिछाई पूरा मंज़र ही बदल गया। हर मिसरे पर 'वंसमोर, वंसमोर' की आवाज़ ने जगजीत भाई को बमुश्किल तमाम आगे बढ़ने दिया। आलम ये रहा कि कुल जमा सोलह मिसरों की ये नज़्म वो दस-पंद्रह मिनिट में पूरी कर पाए। दूसरे दिन सुबह श्रीनगर के सारे अख़बार जगजीत के जगाए जादू से भरे पड़े थे। एक समाचार दैनिक में 'ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र' की हेड लाइन थी और ख़बर में लिखा था - ''पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर / चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर / हसीं वादियों में महकती है केसर / कहीं झिलमिलाते हैं झिलों के ज़ेवर / ये कश्मीर क्या है, है जन्नत का मंज़र आलोक श्रीवास्तव के इन बोलों को जब जगजीत सिंह का गला मिला तो एसकेआईसीसी का तापमान यकायक गरम हो गया। ये नज़्म की गर्मी थी और सुरों की तुर्शी। ऑडिटोरियम के बाहर का पारा माइनस में ज़रूर था मगर अंदर इतनी तालियां बजीं कि हाथ सुर्ख़ हो गए। स्टीरियो में कान लगाकर सुनने वाले घाटी के लोग और जगजीत सिंह बुधवार को यूं आमने-सामने हुए।''

बात थोड़ी पुरानी हो गई है। लेकिन बात अगर तारीख़ बन जाए तो धुंधली कहाँ होती है। ठीक वैसे जैसे जगजीत सिंह की यादें कभी धुंधली नहीं होने वालीं। ठीक वैसे ही जैसे एक मखमली आवाज़ शून्य में खोकर भी कहीं आसपास ही सुनाई देती रहेगी। आमीन।

Saturday, October 8, 2011

बेमिसाल लता

समंदर की गहराई को किसने नापा है? किसके बूते में है आसमान के कैनवस पर ब्रश फेरना? चंद रोज़ पहले एक दरीचा खुला। एक पुराना ख़्वाब था। दरिचा खुला तो वही ख़्वाब पर फैला कर उड़ा वहां से। ख़्वाब था कि टीवी में रहते हुए लता जी पर फ़िल्म बना सकूं। उन पर कुछ लिख सकूं। सो वक़्त मेहरबां हुआ और सुरों की उस बड़ी शख़्सियत पर एक छोटी-सी फ़िल्म बन गई - बेमिसाल लता.

गए28 सितंबर को अपनी लता जी 82साल की हुईं और 'आजतक' पर बेमिसाल लता टेलीकास्ट हुई। अब वही फ़िल्म youtube पर आ गई है। ज़्यादा नहीं, बस 33 मिनट का समय निकाल लीजिए और एक ही सिटिंग में इसे देख डालिए। हालांकि समंदर की गहराई को किसने नापा है? किसके बूते में है आसमान के कैनवस पर ब्रश फेरना?

BEMISAL LATA Special for Aajtak PART 1 To 6

PART 1
http://www.youtube.com/watch?v=yqWPPMYZpwo

PART2
2http://www.youtube.com/watch?v=U1hvvb-Et94&feature=related

PART3
http://www.youtube.com/watch?v=C8D55FbXJ2k&feature=related

PART 4
http://www.youtube.com/watch?v=4lUbMttaWCI&feature=related

PART 5
http://www.youtube.com/watch?v=KUegoQZea5c&feature=related

PART 6
http://www.youtube.com/watch?v=hGk5Ppprzpw&feature=related

आपका ही आलोक

Monday, September 26, 2011

'जग जीत' ने वाले यूं नहीं हारते

तकलीफ़ क्या बांटनी? दुख को क्या सांझा करूं? जगजीत सिंह जी पिछले चार रोज़ से आईसीयू में हैं। एक महफ़िल में गाते हुए ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर मुंबई के लीलावती हॉस्पिटल में ऑपरेशन। परसों मुंबई से ही मित्र रीतेश ने मैसेज किया, फ़िक्र जताई - आलोक भाई, जगजीत जी ठीक तो हो जाएंगे न? उनकी आवाज़ में सजा आपका एक शेर कल से ज़हन में मायूस घूम रहा है -

चांदनी आज किस लिए नम है,

चांद की आंख में चुभा क्या है।

हां दोस्त, चांद की आंख में कुछ चुभ गया है मगर सुबह-सुबह एक ख़ुशी ने भी दस्तक दी है। जगजीत जी के अनुज करतार भाई ने फ़ोन पर ख़ुशख़बरी सुनायी कि - अब भाई की तबीयत पहले से बहुत बेहतर है। तो सोचा इस ख़ुशबू को दूर-दूर तक फैला दूं।

अपनी मख़मली आवाज़ से एक पूरा युग सजाने वाले जगजीत सिंह के लाखों-करोड़ों चाहने वाले ये जान कर जश्न मना लें कि अब अपने जगजीत भाई बहुत हद तक ठीक हो चुके हैं। आज सुबह जब करतार भाई का फ़ोन आया तो सूरज को काम संभाले कोई तीन-चार घंटे हो चुके थे। मगर उजाला, करतार भाई की आवाज़ के बाद हुआ। 'जग जीत' ने वाले यूं हारा नहीं करते। अब तो बस ये दुआ कीजिए कि वो जल्द ही आईसीयू और लीलावती हॉस्पिटल से भी बाहर आ जाएं ताकि फिर एक बार फ़िज़ा उनकी आवाज़ से महक सके। आमीन।

तकलीफ़ क्या बांटना? दुख को क्या सांझा करना? हां, आज सुबह जब एक ख़ुशी ने दस्तक दी तो सोचा इस ख़ुशबू को दूर-दूर तक फैला दूं। इस गठरी से मुट्ठी-भर ख़ुशबू लेकर आप भी फ़िज़ा में उछाल दीजिए। माहौल ख़ुशनुमा हो जाएगा।

Monday, August 29, 2011

पूश्किन सम्मान

जनसत्ता एक्सप्रेस.नेट से साभार

मॉस्को। ''तुम्हारे पास आता हूं, तो सांसें भीग जाती हैं / मुहब्बत इतनी मिलती है, कि आंखें भीग जाती हैं.” हिन्दी के जाने-माने कवि आलोक श्रीवास्तव ने अपनी यह पंक्तियां जब हिंदुस्तानियों की ओर से भारतीय साहित्य और संस्कृति के चहेते रूसियों को नज़्र कीं तो मॉस्को में आयोजित पूश्किन सम्मान समारोह में मौजूद लोगों की आंखें सचमुच भीग गईं. कार्यक्रम समाप्त हुआ तो इन पंक्तियों के साथ कई लोग देर तक भारत-रूस के पुराने-रिश्ते को याद करते रहे.

आलोक श्रीवास्तव यहां रूस का प्रतिष्ठित ‘अंतरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान’ लेने आए हुए थे. आलोक को यह सम्मान उनके चर्चित ग़ज़ल संग्रह ’आमीन’ के लिए प्रसिद्ध रूसी कवि अलेक्सान्दर सेंकेविच ने दिया. रूस का ‘भारत मित्र समाज’ पिछले बारह वर्षों से प्रतिवर्ष हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि या लेखक को मास्को में हिन्दी-साहित्य का यह महत्वपूर्ण सम्मान देता है. इस बार यह सम्मान भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिया गया.

रूस में बसे भारतीयों के साथ हिंदी-रूसी भाषा के साहित्यकारों और विद्वानों की मौजूदगी में आलोक को सम्मान स्वरूप प्रख्यात रूसी कवि अलेक्सान्दर पूश्किन की पारम्परिक प्रतिमा, सम्मान-पत्र और प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया गया. सम्मान के अन्तर्गत आलोक दस दिन तक रूस के विभिन्न शहरों की साहित्यिक-यात्रा करेंगे और यहां प्रसिद्ध रूसी-कवियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों से मिलेंगे. इस अवसर पर ’भारत मित्र समाज’ आलोक श्रीवास्तव की प्रतिनिधि रचनाओं का रूसी भाषा में अनुवाद भी प्रकाशित करेगा. ‘भारत मित्र समाज’ के महासचिव अनिल जनविजय ने मॉस्को से जारी विज्ञप्ति में यह सूचना दी है.

पेशे से टीवी पत्रकार आलोक लगभग दो दशक से साहित्यिक-लेखन में सक्रिए हैं. उनकी रचनाएं हिन्दी-साहित्य की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. वर्ष 2007 में प्रकाशित उनके पहले ग़ज़ल-संग्रह ‘आमीन’ से उन्हें विशेष पहचान मिली. इसी पुस्तक के लिए आलोक को मप्र साहित्य अकादमी का ‘दुष्यंत कुमार पुरस्कार’, ‘हेमंत स्मृति कविता सम्मान’ और ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ जैसे कई प्रतिष्ठित साहित्यिक-सम्मान मिल चुके हैं मगर वे हिंदी के पहले ऐसे युवा ग़ज़लकार हैं जिन्हें रूस का यह महत्वपूर्ण सम्मान दिया गया है. हिन्दी-रूसी साहित्य के मूर्धन्य कवि-लेखकों व अध्येता-विद्वानों की पांच सदस्यीय निर्णायक-समिति ने जनवरी 2011 में आलोक श्रीवास्तव को इस सम्मान के लिए चुना था.

Thursday, July 21, 2011

नेह बोलियां

नेह भी अजीब होता है.!? जो समझ ले सूफ़ी हो जाता है और जो न समझे वो बावरा। कभी ऐसी ही एक बावरी का चेहरा बुना था। नासमझ बावरी। सोचा, चलो इसे नेह के मायने समझाऊं तो काग़ज़ पर चंद मासूम से मिस्रों की शक्ल उभर आई। एक नज़्म ने करवट ली और नींद से जाग कर बोली - 'चलो, अब जगाया है तो मुझे गुनगुनाओ भी.!'
मैं ठहरा निरा बेसुरा.! उस नज़्म को भला मैं क्या गुनगुनाता.? तो मेरे लिए ये मुश्किल हमेशा की तरह शुभा दीदी ने आसान कर दी। कमाल का गाया। जैसा वो सदा गाती हैं।
जब उन्होंने गाया तो मुझे आपके लिए अपना फ़र्ज़ याद आया। सोचा, आपसे उस गुनगुनाहट को बांटूं जिसने मुझे भी अपनी ख़ुमारी में ले रखा है।
फ़िलहाल यहां उस नज़्म को लफ़्ज़ों का चेहरा दे रहा हूं। ऑडियो क्लिप की खिड़की खोल कर शुभा दीदी की आवाज़ का ख़ुशबूदार झौंका भी आप जल्द ही महसूस कर पाएंगे। आमीन।

ओ री बावरी, समझा तो कर
नेह बोलियां।


चांद गगन में पूरा क्यूं है
पूनम का मुख उजला क्यूं है
क्यूं मिलता है सुब्ह से सूरज
शाम का चेहरा पीला क्यूं है
समझा तो कर.!


सुन तो ज़रा मीरा की तानें
क्या कहती हैं रोज़ अज़ानें
ख़ुशबू आख़िर,ख़ुशबू क्यूं है
धरती पर मैं और तू क्यूं हैं

समझा तो कर.!

भेद जिया के ऐसे वैसे
खोल दिए आंखों ने कैसे
कुछ भी नहीं तो फिर ये हया क्यूं
कुछ भी नहीं है, ऐसा कैसे
समझा तो कर.!

Wednesday, April 20, 2011

ग़ज़ल का नया सिरा

'वो लड़की जब भी मिलती है ये आंखें भीग जाती हैं।' यह एक मिस्रा क्या हो गया, अज़ाब हो गया। नए-प्राचीन मित्रों तक, जिसे भी सुनाया, सबने बातें सुनाईं। एक बेबाक दोस्त तो यहां तक कह गए कि - 'अब ऐसे मिस्रे सुनाएंगे.? अमां भीड़ में बह कर ऐसे कमज़ोर शेर कहने से बेहतर है वैसा कुछ कहो जिसके लिए थोड़े-बहुत जान लिए गए हो।' अक़्ल रौशन हुई तो बात भी समझ में आ गई। दरअस्ल चमकते हुए चंचल शब्दों के पीछे का सच अक्सर कुछ और ही होता है, चहरा देख कर बहक जाओ तो रूह तक चोट लगती है मगर सलाम उन सरपरस्तों और दोस्तों की मुहब्बत को जिन्होंने भटकने से पहले राह दिखा दी। गिरने से पहले संभाल लिया। नए सिरे से ग़ज़ल कही, यह नया सिरा आपकी दुआओं को सौंप रहा हूं, संभालिएगा -

तुम्हारे पास आता हूं तो सांसे भीग जाती हैं,
मुहब्बत इतनी मिलती है के' आंखें भीग जाती हैं।

तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बरसात जैसी है,
वो जब भी बात करता है तो बातें भीग जाती हैं।

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो सांसें भीग जाती हैं।

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं।

तेरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है,
तेरी रहमत की बारीश से मुरादें भीग जाती हैं।

आपका ही आलोक

Wednesday, March 2, 2011

इधर कुछ दिन से..


सच.! इधर कुछ दिन से अजब-सा हाल है मन का। उलझनें कुछ भी नहीं हैं और ये मन, उलझता जा रहा है अनगिनत परछाइयों से। वक़्त जैसे बाज़ लेकर उड़ रहा है, तेज़-तेज़। बस हवाएं और सदाएं और अदाएं। कौन है जो बांध कर ले जा रहा है। फिर ख़याल आया हज़ारों बार ये भी - तोड़ कर बंधन ये सारे लिख ही डालूं ये सभी बेचैनियां मन की। मगर अजानी शय है जो पीछे भागती है, रोक लेती है क़लम को। बांध देती है बहुत कस के मेरी इन उंगलियों को। ज़हन, रफ़्तार लेकर क्या करेगा जबकि ये औज़ार पीछे हट रहे हों। मगर अब हो गया, बहुत सब हो गया। सोचा कि अब लिखना पड़ेगा। वर्ना ये सांसें हमारी यूं ही एक दिन। धूप में काफ़ूर बन के उड़ रहेंगी। और हम आंखों को खोले सो रहेंगे। इधर कुछ दिन से अजब सा हाल है मन का। इधर कुछ यूं कहा है मन ने मेरे -

वो लड़की जब भी मिलती है, ये आंखें भीग जाती हैं,
कभी शबनम बरसती है, तो रातें भीग जाती हैं.

तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से तो शाखें भीग जाती हैं.