यादों के पर्दे लहराते रहते हैं। सुबह-सुबह जब आंखें खोलीं तो सर्दी में ठिठुरता बचपन याद आ गया। बचपन, जो हम जैसे क़स्बाइयों के साथ पंद्रह-सोलह बरस तक रहता है।
ऐसे ही सर्द दिनों में अपना विदिशा कुछ ज़्यादा रचनात्मक हो जाता था। सर्दियों में साहित्यिक सरगर्मियां बढ़ जाती थीं, चौक-चौराहों पर कवि-सम्मेलन-मुशायरे जी उठते थे। जब-जब ऐसा मौक़ा आता हम अम्मा का शॉल लपेटे सबसे पहले जाकर, पहली सफ़ में डट जाते थे। एक-एक कवि-शायर को सुबह तक ऐसे सुनते जैसे फ़ज्र की नमाज़ इन्हीं के हक़ में अदा करनी हो।
ऐसी ही एक रात में आगे की क़तार पकड़े बैठे हम, बार-बार हैरत से उस ओर देख रहे थे जहां सजे-धजे कवियों की क़तार के छोर पर, खांटी गांव के लिबास में एक दद्दू बैठे थे। 'अबे जे कोन है?' साथ आए दोस्त ने बुदबुदाकर हमसे पूछा और हमने हुमक कर यही सवाल पडौसी से पूछ लिया। पास जो बैठा था, ज़हीन था, और कवि-सम्मेलनों-मुशायरों का हमसे बड़ा मुरीद जान पड़ रहा था। बोला - अदम गोंडवी।
'अबे जे हैं अदम गोंडवी? लगते तो किसी गांव-देहात के सरपंच हैं।' दोस्त ने जुमला उछाला मगर अदम गोंडवी का नाम सुनते ही हमारे ज़हन में उस ग़ज़ल के सारे शे'र सरसराहट की तरह तैर गए, जो तब हाल में ही कहीं पढ़ी थी । आंखें इस ख़ुशी से चमक उठीं कि हम अदम गोंडवी के सामने बैठे हैं कि हम आज अदम गोंडवी को रूबरू सुनेंगे।
काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में।
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें,
संसद बदल गयी है यहां की नख़ास में।
जनता के पास एक ही चारा है बगावत,
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।
वाक़ई, यादों के पर्दे लहराते रहते हैं। सुबह-सुबह जब आंखें खोलीं तो सर्दी में ठिठुरता बचपन याद आ गया। पहली बार अदम दद्दू को अपने सामने देख कर जो सरसराहट पैदा हुई थी वही सरसराहट मित्र चण्डीदत्त शुक्ल का लेख पढ़ कर एक बार फिर होने लगी। बचपन में अदम को सुनने से लेकर, उनके साथ कई-कई मंचों पर कविता सुनाने, साथ आने-जाने और वक़्त बिताने के कितने ही मंज़र आंखों में एक साथ तैर गए।
आम इंसानी ज़िंदगी की जद्दोजहद को ग़ज़ल बनाने वाले हम सबके प्यारे अदम दद्दू अस्पताल में ज़िंदगी से जद्दोजहद कर रहे हैं। ज़हन पर अजीब सी फ़िक्र तारी हो गई। अभी कुछ रोज़ पहले ही तो ऑफ़िस आए थे, सबसे मिले थे। दिल्ली के हिंदी भवन में भले-चंगे दिखे थे। फिर अचानक ये क्या हुआ?
फ़ोन घनघनाया तो पता लगा पुराना नंबर भी बदल गया है। नया नंबर तलाशा। चण्डीदत्त से ही नया नंबर मिला। दोपहर तक अदम दद्दू की आवाज़ से मुख़ातिब हुए तो सांसों की रफ़्तार क़ाबू में आई। आदाब के बाद उधर से दद्दू की आवाज़ ठनठनाई - 'जीयो प्यारे। हम ठीक हैं। फ़िक्र थी, सो अब टल गई। जल्दी मिलेंगे।'
मिलना ही होगा दद्दू क्योंकि आप जैसे क़लमकार दुनिया को कम ही मिलते हैं। आप जैसों को पढ़-सुन कर कई नस्लों के ज़हन खुलते हैं। कई फसलें पका करती हैं, नई क़लमें जवां होती हैं। मिलना ही होगा दद्दू क्योंकि अभी रामराज को विधायक निवास से बाहर लाना है। बग़ावत का परचम भ्रष्ट-फ़ज़ा में लहराना है। आपकी शख़्सियत और कविता का मतलब, दुनिया को अभी कुछ और समझाना है। 'यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।'
Thursday, December 1, 2011
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