Thursday, October 2, 2008

शाहों के शाह आबरू

17वीं शताब्दी के शाइरों में एक आबरू भी रौशन हुए। ख़ासे तहज़ीब-पसंद और मिलनसार शायर। आबरू को पढ़ते हुए या कहिए कि आबरू के बारे में पढ़ते हुए दो नाम बराबर सामने आते हैं। पहला- ख़ाने आरज़ू, जिन्हें आबरू अपना कलाम दिखाया करते थे। बावजूद इसके कि ख़ुद आबरू का नाम उनके दौर में ख़ासे मंजे-मंजाए और उस्ताद शाइरों की फ़हरिस्त में हुआ करता था। जिन दो नामों का ज़िक्र कर रहा हूं उसमें दूसरा नाम मीर मख्खन का है। मीर मख्खन, एक बुज़ुर्ग शाह कलाम बुख़ारी के बेटे थे जिससे आबरू को नामालूम क्यों बेपनाह मुहब्बत थी। आबरू के कुछ अश्आर में मीर मख्खन का नाम भी आया है या उनके इशारे मिलते हैं। आबरू अपनी शायरी में हालात के आगे घुटने टेकते नज़र नहीं आते बल्कि उसे मौज़ू बनाते मिलते हैं, मसलन उनकी एक आंख की रौशनी कम पड़ गई थी, और वो बयां कुछ यूं कर रहे थे-

नैन से नैन जब मिलाय गया,
दिल के अंदर मेरे समाय गया।
तेरे चलने की सुन ख़बर आशिक़,
यही कहता हुआ कि- हाय! गया।


आबरू, शाह मुबारक के नाम से भी मशहूर हुए। यूं घर वालों ने नाम- नज़मुद्दीन रखा था। आबरू, शाह मुहम्मद ग़ौस ग्वालियरी के वंशज थे और ग्वालियर में ही पैदा हुए थे, मगर दिल से जुड़े फ़नकार दिल्ली से न जुड़ें, ये कैसे हो सकता था ? सो आबरू बचपन में ही दिल्ली चले आए। पैदाइश की तारीख़ का हवाला कुछ साफ़-साफ़ नहीं मिलता लेकिन 1750 ई. में 50 साल से ज़्यादा कि उम्र रही होगी जब दिल्ली में आबरू ने आख़िरी सांस ली । 'आराइशे-माशूक़' के नाम से आबरू ने एक मसनवी की रचना की। एक दीवान भी था जो हालात की नज़्र हुआ। अब आबरू का जो कुछ है यहां-वहां तारीख़ के पन्नों में बिखरा हुआ है, उन्हीं में से कुछ यहां पेश कर रहा हूं-


बोसा लबों का देने कहा, कहके मुकर गया,
प्याला भरा शराब का अफ़सोस गिर गया।
क़ौल 'आबरू' का था के' न जाऊंगा उस गली,
हो करके बेक़रार देखो आज फिर गया।

जुदाई के ज़माने की सजन क्या ज़्यादती कहिए,
के' इस ज़ालिम की जो हम पर, घड़ी गुज़री सो जुग बीता।
लगा दिल यार से जब उसका, क्या काम 'आबरू' हमसे,
के' ज़ख़्मी इश्क़ का फिर मांग के पानी नहीं पीता।


ये रस्म ज़ालिमी की दस्तूर है कहां का,
दिल छीन कर हमारा, दुश्मन हुआ है जां का।
फिरते ही फिरते दश्त दिवाने किधर गए,
वे आशिक़ी के हाय ज़माने किधर गए।
मिज़गां तो तेज़तर है, व लेकिन जिगर कहां,
तरकश तो हैं भरे प' निशाने किधर गए।


निशाने से याद आया, रविवार था। यही गुज़रा रविवार। बाल काफ़ी बढ़ गए थे, सेलून चला गया, कटिंग करवाने। विदिशा से भोपाल और फिर भोपाल से दिल्ली आए ग़ालिबन चार साल हुए। मुझे ठीक-ठीक याद है, दिल्ली आने के दो हफ़्ते बाद ही इलियास भी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से क़स्बे से दिल्ली पहुंचा था। रोज़गार की तलाश में। कोई 15 बरस छोटा है इलियास मुझसे। यहां मेरे घर के पास उसके भांजे का कटिंग-सेलून है। छोटे-क़स्बे और छोटे शहर के लोगों में जमते देर नहीं लगती। मैं पहली बार उस सेलून पर गया और फिर इलियास और मेरे चटखारों का दौर महीने में दो-तीन बार तो तय हो ही गया। जो गुज़रे रविवार तक बदस्तूर जारी है। सेलून इलियास के भांजे का है सो आने-जाने वालों के लिए इलियास भी अब तक इलियास से मामू हो चुके हैं। भोपाल की फ़िज़ाओं और उर्दू में रची-बसी घर की तहज़ीब ने मेरी ज़बान भी 'इलियास' जैसी ही बना दी है। ऐसा दोस्त कहते हैं। ख़ैर ये रविवार, मेरे लिए आम नहीं था और अब इलियास भी मेरे लिए मामू से कम नहीं है, यहां ज़िक्र इसीलिए हो रहा है।

'क्या हो रहा है मामू?' मैंने सेलून में घुसते ही इलियास से पूछा। मामू टेंशन में टीवी देख रहे थे, कुछ नहीं बोले और एक ख़ाली पड़ी कुर्सी की तरफ़ इशारा करके मुझे बैठने को कहा। मेरे बैठते ही, कटिंग करने के लिए मामू ने गले में कपड़ा लपेट दिया। उसकी निगाहें अब भी टीवी पर टिकी थीं। वहीं देखते-देखते उसने बाल काटना शुरू कर दिया। लेकिन उसकी आंखों में और कटिंग करने वाली उंगलियों में नफ़ासत एक दम नदारद थी। आज पहली बार ऐसा हो रहा था। डर लग रहा था कि मामू कहीं कान-वान न निपटा दे। मैंने चटखारा लिया- ''कहां खोए हो मामू ?'' मामू कुछ नहीं बोला, बस टीवी की तरफ़ देख कर बुदबुदाया... ''स्साले।'' हाल में दिल्ली में धमाके हुए थे। पकड़ा-धकड़ी जारी थी। मामू पकड़ा-धकड़ी की ख़बरें देख रहा था। मैंने उसे डायवर्ड करना चाहा। छोड़ो मामू, क्या ख़ून ख़राबा देख रहे हो? ''देख रहा हूं इसलिए कि कभी करना पड़े तो कांपू नहीं।'' इलियास की आंखों में ख़ून उतर आया था। मैं धक्क रह गया। लगा कि मैं मामू के निशाने पर हूं।

20 साल का इलियास। चार बरस पहले गांव से काम करने दिल्ली आया मासूम इलियास। मेरा प्यारा मामू इलियास। नफ़रत के ज़हर में पूरी तरह सना, मेरे सामने खड़ा था। उसके हाथ की कैंची से मुझे पहली बार डर लग रहा था। तेज़ रफ़्तार के साथ सेलून से घर जाते हुए मन में दहशत तैर रही थी फिर भी ऊपर वाले से मन-ही-मन दुआ कर रहा था कि-

वो दौर दिखा जिसमें इंसान की ख़ुशबू हो,
इंसान की सांसों में ईमान की ख़ुशबू हो।


पाकीज़ा अज़ानों में, मीरा के भजन गूंजें,
नौ दिन के उपासों में, रमज़ान की ख़ुशबू हो।


मस्जिद की फ़िज़ाओं में, महकार हो चंदन की,
मंदिर की हवाओं में लोबान की ख़ुशबू हो।


मैं उसमें नज़र आऊं, वो मुझमें नज़र आए,
इस जान की ख़ुशबू में, उस जान ख़ुशबू हो।


हम लोग भी फिर ऐसे बेनाम कहां होंगे,
हममें भी अगर तेरी, पहचान की ख़ुशबू हो।


आज ईद है और गांधी जयंती भी। नवरात्र भी चल ही रहे हैं। सो आप सबको गांधी जयंती की बधाइयां, ईद बहुत-बहुत मुबारक और नवरात्र की शुभकामनाएं।

आपका ही आलोक

Wednesday, September 17, 2008

उर्दू के आदि-कवि वली दक्कनी

वली का शुमार उर्दू-कविता की राह तैयार करने वाले शायरों में होता है। उर्दू शायरी की वो राह जो बाद में शाहराह बनी। वली के पहले ख़ुसरो, रहीम और रसखान जैसे भारतीय-कवियों का ज़्यादातर कलाम या तो फ़ारसी में मिलता है या हिंदी में। लेकिन वली ने एक अलग रंग इख़्तियार किया। वली की भाषा उनके समकालीन-कवियों की ज़बान से अलग जगमगाई। उनके भाव फ़ारसी कविता का लुत्फ़ देते थे तो कहन- नई ताज़गी। धीरे-धीरे फ़ारसी के इश्क़ का जादू, तेसी ज़बान में रंग जमाने लगा और वली की शोहरत ने उनके सिर पर उर्दू के आदि-कवि होने का सेहरा बंधवा दिया। वली अपनी ज़िंदगी में मशहूर हुए और मरने के बाद अमर हो गए। वली की शायरी ग़ज़लों, रुबाइयों, क़तों, क़सीदों और मसनवी से सजी हुई है।

हुआ है ख़त्म जब यूं दर्द का हाल,
था ग्यारह सौ में इक्कीसवां साल।

कहा हातिफ़ ने यूं तारीख माकूल,
'वली' का है सख़ुन हक़ पास मक़बूल।

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता,
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।

सलोने साँवरे पीतम तेरे मोती की झलकाँ ने,
किया अवदे-पुरैय्या को खऱाब आहिस्ता आहिस्ता।


शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी औरंगाबाद के रहने वाले थे। किताबों में झांकें तो उनका जीवन-काल 1668 से 1744 के दरमियान दर्ज है। वली का बचपन औरंगाबाद की मिट्टी में सना रहा तो बीस बरस की उम्र में उन्होंने अहमदाबाद का रुख़ कर लिया जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। किताबों से हवाला मिलता है कि 1722 के क़रीब वली दिल्ली चले आए।

दिल 'वली' का ले लिया दिल्ली ने छीन,
जा कहो कोई मुहम्मद शाह सूं।

वली का ये शे'र इस बात की तस्दीक़ है कि वो न सिर्फ़ दिल्ली में लंबे अर्से तक रहे बल्कि यहां कि तबज़ीब से ख़ासे मुतआस्सिर भी हुए। जब वली दिल्ली पहुंचे, सुख़न-नवाज़ों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। महफ़िलें सजने लगीं, शायर चहकने लगे, लेकिन जो आवाज़ निकलती वो वली की आवाज़ से मेल खाती नज़र आती। अब तक वली के दिल पर दिल्ली और दिल्ली के दिल पर वली का नाम रौशन हो चुका था। दिल्ली में वली को वो सम्मान मिला कि शाही दरबार में हिंदी के जो पद गाए जाते थे उनकी जगह वली की ग़ज़लें गाई जाने लगीं। मगर फ़ितरतन यायावर वली ने देर तक किसी एक जगह कयाम नहीं किया बल्कि दूर-दूर का सफ़र करते रहे। गुजरात उन्हें सबसे ज़्यादा अज़ीज़ था। वही (अहमदाबाद में) 1744 में उन्होंने आख़िरी सांस ली। क़ब्र अहमदाबाद बनी, मगर अफ़सोस गुजरात के कुछ तथाकथित 'चाहने वालों' ने गुजरात के दंगों की आड़ में इस सच्चे महबूब की क़ब्र को भी नेस्तनाबूत कर दिया। मुझे बहादूर शाह ज़फ़र का ये शे'र याद आया-

कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए,
दो गज ज़मीं भी न मिली कू-ए-यार में।

गुजरात दंगों के दौरान मुझसे एक मतला हुआ था, जो बाद में कुछ शे'रों का साथ पाकर ग़ज़ल बन गया। अनीश प्रधान को जी ग़ज़ल इतनी पसंद आई की उन्होंने इसकी एक प्यारी-सी धुन बना डाली, और अपने अगले एल्बम के लिए शुभा मुद्गल जी ने इसे अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर लिया-

आसमानों में ताकता क्या है,
तेरी धरती पे अब बचा क्या है।

दूर तक ख़्वाब की मज़ारें हैं,
सूनी आंखों में ढूंढता क्या है।

गुज़रे लम्हों की धूल उड़ती है,
इस हवेली में अब रखा क्या है।

चांदनी आज किस लिए नम है,
चांद की आंख में चुभा क्या है।

जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,
सब उसी का है आपका क्या है।

वो सज़ा दे के दूर जा बैठा,
किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है।

Friday, September 5, 2008

शुरुआत ब्लॉग की...

वादे के मुताबिक़ अमीर ख़ुसरो के बाद वली पर लिखा जाना था मगर मेरे अग्रज-कवि भाई अशोक चक्रधर आदतन अपना हर काम पूरी शिद्दत से करते हैं, फिर चाहे वो इंटरनेट पर हिंदी का बोलबाला देखने का जुनून हो, जयजयवंती की साहित्यिक मासिक गोष्ठियां हों या फिर अपने किसी 'डियर' की पुस्तक का विमोचन या 'ब्लॉगार्पण' अशोक जी का काम पूरे मन का काम होता है. इस बार उन्होंने अपने इस डियर का 'ब्लॉगार्पण' भी धूमधाम से कराया. जिसका गवाह बना दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर का भरा-पूरा गुलमोहर. तो सोचा कि क्यों न ये लम्हे भी आपके साथ बांटता चलूं.

दरअस्ल 'ब्लॉगर' बनने का इंफ़ेक्शन भी अशोक जी की तरफ़ से ही मुझ तक आया, इलाज ज़रूरी था सो इस मर्ज़ के हकीम बने भाई पीयूष पांडे जिन्होंने मुझे itzmyblg.com से जोड़ा. पीयूष जी न जाने क्यों मुझे बहुत कुछ मान बैठे हैं. मेरे ब्लॉग को आशा ने बड़े मन से तैयार किया. आशा, पीयूष जी की टीम की सिपहसालार है और उन लोगों में है जिनकी लगन और क़ाबलियत की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. सो इन सबका दिल से शुक्रिया.

अब शुक्राना उस शख़्सियत का जिनकी अहमियत, मेरी ज़िंदगी में किसी दुआ से कम नहीं है. मेरी बड़ी बहन शुभा मुदगल. शुभा दीदी को सोचते ही डॉ. बशीर बद्र का एक शे'र कुछ यूं याद आता है-

गले में उनके ख़ुदा की अजीब बरकत है,
वो बोलती हैं तो इक रौशनी-सी होती है.

इस ब्लॉग में कविता का सफ़र 12वीं सदी से शुरू हो रहा है और हम अपनी शिनाख़्त की कोशिश कर रहे हैं. उन जड़ों को तलाश रहे हैं जिन पर हमारी तहज़ीब का भरा-पूरा दरख़्त खड़ा है. संगीत की दुनिया में शुभा दीदी अंडरस्कोर रिकॉर्ड्स के ज़रिए ये मुहिम बरसों से चला रही हैं. तो उनसे बेहतर और कौन हो सकता था जो कविता में इस संकल्प के लिए मेरी पीठ पर हाथ रखता, मुझे हौसला देता. अपनी मसरूफ़ियत के बावजूद वो आईं और उन्होंने ब्लॉग रिलीज़ किया. फ़िज़ा में दुआएं गूंजीं और मेरा संकल्प मज़बूती की एक और सीढ़ी चढ़ गया. मेरा वो गीत जो शुभा दीदी की आवाज़ मे ज़िंदा है, यहां वही पेश कर रहा हूं. 'ब्लॉगार्पण' की तस्वीर के साथ.

आओ सोचें ज़रा...
हमने क्या-क्या किया

सांसें यूं ही गईं
क्या मिला, कुछ नहीं?
हम जहां से चले
आ गए फिर वहीं
दिल ने जो भी कहा
हमने क्या वो सुना?
आओ सोचें ज़रा...

कोई हमसे अलग
जाएगा भी किधर
वक़्त भी आएगा
शर्त ये है मगर
अपनी आवाज़ में
कौन देगा सदा?
आओ सोचें ज़रा...

भूल कर चाहतें
छीन कर राहतें
बांट कर नफ़रतें
खींच कर सरहदें
हाथ क्या आएगा
साथ क्या जाएगा?
आओ सोचें ज़रा...

इस वादे के साथ कि अगली मुलाक़ात वली की शायरी के साथ होगी. आमीन.

Friday, August 29, 2008

अपनी शिनाख़्त

हर वक़्त फ़िज़ाओं में महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूं, महकूंगा ज़मानों तक

प्यार लुटाना कोई आसान काम नहीं। कलेजा चिर जाता है. अपने दुखों को तकिए के नीचे रख कर सुखों का ख़्वाब दिखाने वाले कितने हैं ? और उन कितनों को याद करने वाले आज कितने हैं? ज़रा सोचिए, हम कहां आ गए हैं? ज़रूरी ये नहीं कि हम हर एक कोने हर क्षेत्र में जाएं और उन युग पुरुषों की पड़ताल करें. ज़रूरी ये है कि हम जिस दुनिया में सांस ले रहे हैं, जिसमें जी रहे हैं या फिर जो दुनिया हममें धड़क रही है. बस उसी की शिनाख़्त करते चलें. शायद इस शिनाख़्त के दौरान ही, हमें कहीं अपना पता-ठिकाना मिल जाए.


मैं शायरी के उस घराने को सलाम करता हूं जिसकी बुनियाद
12वीं शताब्दी में रखी गई थी। तब ग़ज़ल सिर्फ़ ग़ज़ल हुआ करती थी. हिंदी ग़ज़ल या उर्दू ग़ज़ल नहीं. लिहाज़ा अपने ब्लाग का ये पहला पोस्ट भी 'ग़ज़ल-घराने' के 'बड़े अब्बा' यानी हज़रत अमीर ख़ुसरो की नज़्र कर रहा हूं. ख़ुसरो यानी मुहब्बत और इबादत का दूसरा नाम. ख़ुसरो यानी खड़ी बोली की कविता का अलमबरदार कवि. ख़ुसरो यानी शायरी का वो रौशन नाम जो बिना शक हिंदी और उर्दू दोनों के आदिकवि हैं. 1255 ई. में उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में पैदा हुए अबुलहसन उर्फ़ अमीर ख़ुसरो फ़ारसी, अरबी, तुर्की और हिंदी के विद्वान थे. ख़ुसरो जिनके जीवन-काल में दिल्ली के तख़्त ने 11 सुलतानों का हुक्म सुना और इन 11 में से 7 सुलतानों ने अपने दरबार में अमीर ख़ुसरो की शायरी सुनी. ख़ुसरो को जानने वालों ने, अपनी रहती ज़िंदगी तक इस सुफ़ी कवि के समर्पण की क़समें खाईं. 1324 ई. में हिंदुस्तानी अदब को अलग-अलग विधाओं क़रीब 100 बेशक़ीमती किताबें, कई राग-रागनियां और मीठे-मीठे वाद्य-यंत्र देकर ये हरफ़नमौला शायर अपने महबूब, अपने गुरू हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के पास जाकर हमेशा-हमेशा के लिए सो गया, ये कहते हुए कि-


गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहु देस।।

आज आप और हम जिसे ग़ज़ल कहके गुनगुनाते है, अपने माज़ी या अपने आज में कहीं डूब जाते हैं उसकी बुनियाद रखने वाला भी कोई और नहीं अमीर ख़ुसरो ही थे. ये और बात कि तब ख़ुसरो के घर में ग़ज़ल ने 'रेख़ता' के नाम से आंखें खोलीं थीं. उनके एक मशहूर रेख़ते के दो शेर यहां आप सबकी नज़्र हैं-

ज़े हाले मिसकीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैना बनाए बतियां,
कि ताबे हिजरां न दारमे-जां न लेहु काहे लगाय छतियां।

शबाने हिजरां दराज़ चूं ज़ुल्फ़ो-रोज़े वसलत चूं उम्र कोतह,
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अमीर ख़ुसरो के महबूब थे, और इस ख़ाकसार के महबूब हैं- अमीर ख़ुसरो. ख़ुसरो ने निज़ामुद्दीन औलिया को ध्यान में रख कर रचनाएं कहीं अपने गुरू से मुहब्बत की, और साथ-साथ अपनी शिनाख़्त भी. इस नाचीज़ ने ख़ुसरो को उन्हीं के मिसरे पर ग़ज़ल कह कर याद किया. अपनी जड़ों की शिनाख़्त की और इस तरह अपना पता-ठिकाना तलाश करने की कोशिश की-

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां,
कि जिनमें उनकी ही रोशनी हो , कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां।

दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सब कुछ , मैं करना चाहूं नज़र से बतियां।

ये इश्क़ क्या है , ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती सांसे , तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां।

उन्हीं की आंखें , उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुश्बू,
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा , किसी दरस में पिरोलूं अंखियां।

मैं कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते ,
न काग बोले , न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां।

अपनी जड़ों से जुड़ने का ये सिलसिला अब यूं ही जारी रहेगा ताकि हम और आप अपनी शिनाख़्त कर सकें. आमीन.