Wednesday, March 2, 2011

इधर कुछ दिन से..


सच.! इधर कुछ दिन से अजब-सा हाल है मन का। उलझनें कुछ भी नहीं हैं और ये मन, उलझता जा रहा है अनगिनत परछाइयों से। वक़्त जैसे बाज़ लेकर उड़ रहा है, तेज़-तेज़। बस हवाएं और सदाएं और अदाएं। कौन है जो बांध कर ले जा रहा है। फिर ख़याल आया हज़ारों बार ये भी - तोड़ कर बंधन ये सारे लिख ही डालूं ये सभी बेचैनियां मन की। मगर अजानी शय है जो पीछे भागती है, रोक लेती है क़लम को। बांध देती है बहुत कस के मेरी इन उंगलियों को। ज़हन, रफ़्तार लेकर क्या करेगा जबकि ये औज़ार पीछे हट रहे हों। मगर अब हो गया, बहुत सब हो गया। सोचा कि अब लिखना पड़ेगा। वर्ना ये सांसें हमारी यूं ही एक दिन। धूप में काफ़ूर बन के उड़ रहेंगी। और हम आंखों को खोले सो रहेंगे। इधर कुछ दिन से अजब सा हाल है मन का। इधर कुछ यूं कहा है मन ने मेरे -

वो लड़की जब भी मिलती है, ये आंखें भीग जाती हैं,
कभी शबनम बरसती है, तो रातें भीग जाती हैं.

तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से तो शाखें भीग जाती हैं.