
सच.! इधर कुछ दिन से अजब-सा हाल है मन का। उलझनें कुछ भी नहीं हैं और ये मन, उलझता जा रहा है अनगिनत परछाइयों से। वक़्त जैसे बाज़ लेकर उड़ रहा है, तेज़-तेज़। बस हवाएं और सदाएं और अदाएं। कौन है जो बांध कर ले जा रहा है। फिर ख़याल आया हज़ारों बार ये भी - तोड़ कर बंधन ये सारे लिख ही डालूं ये सभी बेचैनियां मन की। मगर अजानी शय है जो पीछे भागती है, रोक लेती है क़लम को। बांध देती है बहुत कस के मेरी इन उंगलियों को। ज़हन, रफ़्तार लेकर क्या करेगा जबकि ये औज़ार पीछे हट रहे हों। मगर अब हो गया, बहुत सब हो गया। सोचा कि अब लिखना पड़ेगा। वर्ना ये सांसें हमारी यूं ही एक दिन। धूप में काफ़ूर बन के उड़ रहेंगी। और हम आंखों को खोले सो रहेंगे। इधर कुछ दिन से अजब सा हाल है मन का। इधर कुछ यूं कहा है मन ने मेरे -
वो लड़की जब भी मिलती है, ये आंखें भीग जाती हैं,
कभी शबनम बरसती है, तो रातें भीग जाती हैं.
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.
ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से तो शाखें भीग जाती हैं.
वो लड़की जब भी मिलती है, ये आंखें भीग जाती हैं,
कभी शबनम बरसती है, तो रातें भीग जाती हैं.
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.
ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से तो शाखें भीग जाती हैं.
16 comments:
ये कहीं प्रेमरोग की अलामतें तो नहीं :)
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.
behad khoobsurat pangtiyan hain.wah.
हर शेर लाज़वाब ! खास कर इस शेर ने तो अपने भावों की नमी में भिगो गया..
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.
आभार सम्मानीय आलोक जी !
ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से तो शाखें भीग जाती हैं.
bhaisahab aapka visualization bahut great hai, ek-ek shabd dikhlayee de raha hai. Iran ke ek mahan directer "majid majidi" ki yaad aa gayee, unki filmen bhi etni hi visually hoti hai.
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.
-बहुत उम्दा!! वाह आलोक भाई!!
kya baat hai.
Aap to bas kamal hai.
bahut din baad apka likha padh paya, aur jab mila to pyas aur badh gai. shukriya. u hi likhte rahen. aamin.
बहुत खूब! भीगे भीगे से एहसास मुबारक।
bahut khoobsurat
bahut khoob
तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है,
ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं.
lajavab
badhai
rachana
Alok bhai
Lafz nahi milte.
Kuch kehna chaahta hoon par barbas sirf yahi nikalta hai-wah, subhaan allah.
kya bat hai bhai.....khoobtar!!!
आलोक जी वैसे तो आपकी हर ग़ज़ल, हर नज़्म हर मिसरा अपने आप में बेमिसाल होता है लेकिन ये तो नायाब मोती है...तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बारिश के जैसी है, ज़ुबां वो जब भी खोले है तो बातें भीग जाती हैं. भीगी बातों की नाजुक नमी सी ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई.
सादर
मंजु मिश्रा
"हर तरफ फागुनी कलेवर हैं।
फूल धरती के नए जेवर हैं॥
कोई कहता है, बाबा बाबा हैं-
कोई कहता है बाबा देवर है॥"
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क्या फागुन की फगुनाई है।
डाली - डाली बौराई है॥
हर ओर सृष्टि मादकता की-
कर रही मुफ़्त सप्लाई है॥
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होली के अवसर पर हार्दिक मंगलकामनाएं।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
भावपूर्ण प्रयोगधर्मी रचना साझा करने के लिए आभार
हवाऐ सदाऐं अदाऐं इन्हे कौन बांध सकता है भैया ।
रातें भीगना, बाते भीगना, शाखें भीगना , आंखे भीगना अच्छा लगा मगर ये तबस्सुम इत्र जैसा,?
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