वादे के मुताबिक़ अमीर ख़ुसरो के बाद वली पर लिखा जाना था मगर मेरे अग्रज-कवि भाई अशोक चक्रधर आदतन अपना हर काम पूरी शिद्दत से करते हैं, फिर चाहे वो इंटरनेट पर हिंदी का बोलबाला देखने का जुनून हो, जयजयवंती की साहित्यिक मासिक गोष्ठियां हों या फिर अपने किसी 'डियर' की पुस्तक का विमोचन या 'ब्लॉगार्पण' अशोक जी का काम पूरे मन का काम होता है. इस बार उन्होंने अपने इस डियर का 'ब्लॉगार्पण' भी धूमधाम से कराया. जिसका गवाह बना दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर का भरा-पूरा गुलमोहर. तो सोचा कि क्यों न ये लम्हे भी आपके साथ बांटता चलूं.
दरअस्ल 'ब्लॉगर' बनने का इंफ़ेक्शन भी अशोक जी की तरफ़ से ही मुझ तक आया, इलाज ज़रूरी था सो इस मर्ज़ के हकीम बने भाई पीयूष पांडे जिन्होंने मुझे itzmyblg.com से जोड़ा. पीयूष जी न जाने क्यों मुझे बहुत कुछ मान बैठे हैं. मेरे ब्लॉग को आशा ने बड़े मन से तैयार किया. आशा, पीयूष जी की टीम की सिपहसालार है और उन लोगों में है जिनकी लगन और क़ाबलियत की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. सो इन सबका दिल से शुक्रिया.
अब शुक्राना उस शख़्सियत का जिनकी अहमियत, मेरी ज़िंदगी में किसी दुआ से कम नहीं है. मेरी बड़ी बहन शुभा मुदगल. शुभा दीदी को सोचते ही डॉ. बशीर बद्र का एक शे'र कुछ यूं याद आता है-
गले में उनके ख़ुदा की अजीब बरकत है,
वो बोलती हैं तो इक रौशनी-सी होती है.
इस ब्लॉग में कविता का सफ़र 12वीं सदी से शुरू हो रहा है और हम अपनी शिनाख़्त की कोशिश कर रहे हैं. उन जड़ों को तलाश रहे हैं जिन पर हमारी तहज़ीब का भरा-पूरा दरख़्त खड़ा है. संगीत की दुनिया में शुभा दीदी अंडरस्कोर रिकॉर्ड्स के ज़रिए ये मुहिम बरसों से चला रही हैं. तो उनसे बेहतर और कौन हो सकता था जो कविता में इस संकल्प के लिए मेरी पीठ पर हाथ रखता, मुझे हौसला देता. अपनी मसरूफ़ियत के बावजूद वो आईं और उन्होंने ब्लॉग रिलीज़ किया. फ़िज़ा में दुआएं गूंजीं और मेरा संकल्प मज़बूती की एक और सीढ़ी चढ़ गया. मेरा वो गीत जो शुभा दीदी की आवाज़ मे ज़िंदा है, यहां वही पेश कर रहा हूं. 'ब्लॉगार्पण' की तस्वीर के साथ.
आओ सोचें ज़रा...
हमने क्या-क्या किया
सांसें यूं ही गईं
क्या मिला, कुछ नहीं?
हम जहां से चले
आ गए फिर वहीं
दिल ने जो भी कहा
हमने क्या वो सुना?
आओ सोचें ज़रा...
कोई हमसे अलग
जाएगा भी किधर
वक़्त भी आएगा
शर्त ये है मगर
अपनी आवाज़ में
कौन देगा सदा?
आओ सोचें ज़रा...
भूल कर चाहतें
छीन कर राहतें
बांट कर नफ़रतें
खींच कर सरहदें
हाथ क्या आएगा
साथ क्या जाएगा?
आओ सोचें ज़रा...
इस वादे के साथ कि अगली मुलाक़ात वली की शायरी के साथ होगी. आमीन.
Friday, September 5, 2008
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4 comments:
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
ब्लागार्पण की ढेर सारी बधाईयाँ
आपके ब्लाग पर आपके और पुराने कवियों के बारे में पढ़ना दिलचस्प रहा। आगे भी उनके और आपकी कवितावों का इन्तेजार रहेगा।
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