मुंबई से लौटकर...
जबसे जगजीत गए तब से क़ैफ़ी साहब के मिसरे दिल में अड़े हैं - ‘रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई, तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई।’ और दिल है कि मानने को तैयार नहीं। कहता है - 'हम कैसे करें इक़रार, के' हां तुम चले गए।'
'24, पुष्प मिलन, वार्डन रोड, मुंबई-36.' के सिरहाने से झांकती 11 अक्टूबर की सुबह। अपनी आंखों की सूजन से परेशान थी। इस सुबह की रात भी हम जैसों की तरह कटी। रो-रो कर।
सूरज को काम संभाले कोई दो घंटे गुज़र चुके थे। जगजीत जी के घर 'पुष्प मिलन' के सामने गाड़ियों का शोर मचलने लगा, मगर चेहरों की मायूसी, आंखों की उदासी और दिलों के दर्द पर कोई शोर, कोई हलचल, कोई हंगामा तारी नहीं हो पा रहा था। जिस आंख में झांकों, वही कह रही थी - 'ग़म का फ़साना, तेरा भी है मेरा भी।'
चेहरों की बुझी-इबारत पढ़ता-बांचता, पैरों में पत्थर बांधे मैं जैसे-तैसे दूसरे माले की सीढ़ियां चढ़ पाया। ग़ज़ल-गायिकी का जादूगर यहीं सो रहा था। '24, पुष्प मिलन' का दरवाज़ा खुला था। भीतर से जगजीत की जादुई आवाज़ में गुरुबानी महक रही थी। म्यूज़िक रूम का कत्थई दरवाज़ा खोला तो सफ़ेद बर्फ़ की चादर में लिपटा आवाज़ का फ़रिश्ता सो रहा था । मुझे देखते ही विनोद सहगल गले लग गए और सिसकते हुए बोले - 'थका-मांदा मुसाफ़िर सो रहा है, ज़माना क्या समझ के रो रहा है।' मगर दिल इस दर्द से आंसूओं में बदल गया कि दुनिया के ज़हनो-दिल महकाने वाली एक मुक़द्दस आवाज़ ख़ामोश सो गई है। अब कोई चिट्ठी नहीं आने वाली। अब प्यार का संदेस नहीं मिलने वाला। अब दुनिया की दौलतों और शोहरतों के बदले भी बचपन का एक भी सावन नहीं मिलने वाला। न काग़ज़ की कश्ती दिखने वाली और न बारिश का पानी भिगोने वाला। अब न ग़ज़ल अपनी जवानी पर इतराने वाली और न शायरी के परस्तार मखमली आवाज़ के इस जादूगर से रूबरू होने वाले।
'हमें तो आज की शब, पौ फटे तक जागना होगा / यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ।' किसी सितारे को टूटते देखना कभी। आसमान के उस आंचल को पलटकर कर देखना, जहां से वो सितारा टूटा है। उस टूटे हुए सितारे की जगह झट से कोई दूसरा तारा ले लेता है। जगमगाने लगता है उस ख़ला में, जहां से टूटा था कोई तारा। मगर चांद को ग़ायब होते देखा कभी? उसकी जगह अमावस ही आती है बस। अमावस तो ख़त्म भी हो जाती है एक दिन। मगर ये अमावस तो ख़त्म होने रही- कमबख़्त।
जगजीत सिंह, जिन्हें कबसे 'भाई' कह रहा हूं, याद नहीं। एकलव्य की तरह कबसे उन्हें अपना द्रौणाचार्य माने बैठा हूं बताना मुश्किल है। कितने बरस हुए जबसे मुरीद हूं- उनका, गिनना चाहूं भी तो नहीं गिन सकता। हां, एक याद है जो कभी-कभी बरसों की धुंधलाहट पोंछकर झांक लेती है और वो ये कि उनकी परस्तारी दिल पर तबसे तारी है जब ईपी या एलपी सुन-सुन कर घिस जाया करते थे। ग्रामोफ़ोन की सुई उनकी आवाज़ के किसी सुरमयी सिरे पर अक्सर अकट जाया करती थी और टेपरिकॉर्डर में ऑडियो कैसेट की रील लगातार चलते-चलते फंस जाया करती थी।
थोड़ा-थोड़ा ये भी याद है कि तब हमारी गर्मियों की छुट्टियां और उनकी तपती दोपहरें आज के बच्चों की तरह एसी कमरों में टीवी या कम्प्यूटर के सामने नहीं बल्कि जगजीत-चित्रा की मखमली आवाज़ की ठंडक में बीता करती थीं। उन दिनों किताबों के साथ-साथ इस तरह भी शायरी की तालीम लिया करते थे। लफ़्ज़ों के बरताओ को यूं भी सीखा करते थे। अपने अंदर एकलव्य को पाला पोसा करते थे।
भाई की किसी ग़ज़ल या नज़्म का ज़हनो-दिल में अटके रह जाने का टोटका हम अक्सर बूझते मगर नाकाम ही रहते। इस तिलिस्म का एक वरक़ तब खुला जब डॉ. बशीर बद्र की ग़ज़ल भाई की आवाज़ में महकी। 'दिन भर सूरज किसका पीछा करता है / रोज़ पहाड़ी पर जाती है शाम कहां।' मैंने फ़ोन लगाया और पूछा - 'ये ग़ज़ल तो बड़ा अर्सा हुआ उन्हें आपको दिए हुए। अब गाई?' जवाब मिला - 'ग़ज़ल दिल में उतरती है तभी तो ज़ुबान पर चढ़ती है।' ..तो ग़ज़ल को अपने दिल में उतारकर, फिर उसे करोड़ों दिलों तक पहुंचाने का हुनर ये था.! तब समझ में आया। अर्से तक गुनगुनाते रहना और फिर गाना तो छा जाना। ये था जगजीत नाम का जादू।
कोई पंद्रह बरस पहले की बात होगी। मुंबई में जहांगीर आर्ट गैलरी से सटे टेलीफ़ोन बूथ से उन्हें फ़ोन लगाया। अपने दो शे'र सुनाए - 'वो सज़ा देके दूर जा बैठा / किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है। जब भी चाहेगा, छीन लेगा वो / सब उसी का है आपका क्या है।' आसमान से लाखों बादलों की टोलियां गुज़र गईं और ज़मीन से जाने कितने मौसम। मगर ये दो शे'र भाई की यादों में धुंधले नहीं पड़े। तब से इस ग़ज़ल को मुकम्मल कराने और फिर एलबम 'इंतेहा' में गाने तक मुझे जाने कितनी बार उनसे अपने ये शे'र सुनने का शरफ़ हासिल हुआ। चार शे'र की इस ग़ज़ल के लिए चालीस से ज़्यादा शे'र कहलवाए उन्होंने। और मतला। उसकी तो गिनती ही नहीं। जब जो मतला कह कर सुनाता, कहते - 'और अच्छा कहो।' ग़ज़ल को किसी उस्ताद की तरह 24 कैरेट तक संवारने का हुनर हासिल था उन्हें। आप उनसे किसी ग़ज़ल के लिए या किसी ग़ज़ल में से, ख़ूबसूरत अश्आर चुनने का हुनर बख़ूबी सीख सकते थे।
'अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं / रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं। वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से / किसको मालूम कहां के हैं किधर के हम हैं।' ठीक। माना। मगर इस फ़िलॉसफ़ी के पीछे भी एक दुनिया होती है। दिल की दुनिया। जहां से एक उस्ताद, एक रहनुमा और एक बड़े भाई का जाना दिल की दो फांक कर देता है। जिनके जुड़ने की फिर कोई सूरत नज़र नहीं आती। समेटना चाहो तो सैकड़ों एलबम्स, हज़ारों कॉन्सर्ट्स और अनगिनत सुरीली ग़ज़लें-नज़्मे। इतने नायाब, ख़ूबसूरत और यादगार तोहफ़ों का कभी कोई बदल नहीं हो सकता। 'जाते-जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया / उम्र भर दोहराऊंगा ऐसी कहानी दे गया।'
जिसने अपनी आवाज़ के नूर से हमारी राहें रौशन कीं। हम जैसों को ग़ज़ल की इबारत, उसके मआनी समझाए। उसे बरतना और जीना सिखाया। शायरी की दुनिया में चलना सिखाया। उसे आख़िरी सफ़र के अपने कांधों पर घर से निकालना ऐसा होता है जैसे - 'उसको रुख़सत तो किया था मुझे मालूम न था / सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।' जग जीत कर जाने वाले जगजीत भाई हम आपका क़र्ज़ कभी नहीं उतार पाएंगे।
आजतक में जगजीत जी के आख़िरी इंटरव्यू का लिंक -
http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/65682/2/0/Exclusive-Ghazal-king-Jagjit-Singhs-last-interview.html
Friday, October 14, 2011
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15 comments:
जगजीत सिंह में सचमुच यह योग्यता थी कि वे अच्छी गज़लों का चयन कर सकते थे। ज्ब वे किसी गज़ल को गाते तो लोग गज़लकार का नाम भूल जाते और कहते यह जगजीत सिंह की गज़ल है!
उनके जाने से ग़ज़ल जैसे अनाथ हो गई...
"तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई है
वो झूठा है"
बहुत साल रहा है जगजीत साहब का यूँ चले जाना..........
It was such a sad but life time memorable day for me when i reached at 24 Pushpa Manzil Apartment with you. I never thought that I will meet this legend in this situation. I still remember that I missed a Golden chance to meet them at the shooting time of INTEHA.
But I met him just because of you not only with this last legend of Gazals but lot of Celebrities from our Film Industries too. I saw that every person was very sad like they lost any close family member.
Once again my prays with departed soul........
ek aesa dukh jo shayad hi kabhi khatm ho jab maene unka interview liya tha to to unhone kaha tha ki mata pita aur bachchon ke sambandhon pr mera naya albam aayega .pr ab to.................mujhe bahut ashirvad diya tha .unki awaj aaj bhi mano kano me gunjti hai.
fir aapto unke bahut karibi rahe hain aapka dukh me samjh sakti hoon
rachana shrivastava
जगजीत सिंह का शरीर विदा हुआ है, उसकी पहचान उसकी आवाज, उसकी कला तो आज भी उसके दीवानों के कानों में गूंज रही है। जगजीत सिंह जी अपना सफर और अपना कार्य कर इस रंगमंच से विदा लेकर चले गए, ताकि वह अगले जन्म में किसी और कार्य की शुरूआत कर सकें।
Hamein Harakar jeetkar jaane wala Jagjit hi to Hia. Ghazal kya hai is baat ki duhayee unki awaaz hamesh deti rahegi
Devi Nangrani
भाई जी, आपके शब्दों में जगजीत सिंह जी को याद करना नया जन्म लेने जैसा लगा। जगजीत हमारे बीच आते रहेंगे, ठीक उसी तरह जैसे आते रहे हैं- न सोने देने वाली रातों में चांद की तरह, उन ओस की बूंदों की तरह जिन पर रात अपना घूंघट भूल कर चली जाती है, झुंड में से अकेली छूट गई उस चिड़ियां की तरह जो सर रखने के लिए किसी कंधे की तलाश में भटकते हुए हमारे कंधे पर हौले से आ कर बैठ जाती है। आलोक भाई, जगजीत हमारे बीच आते रहेंगे- कागज की कश्ती लेकर, बारिश का पानी लेकर, फासलों को मिटाने के लिए हौसला लेकर। हम उन्हें कहीं जाने नहीं देंगे। उनके लिए अपनी मीठी बातों में एक छोटा सा घर बनाएंगे।
आलोक भाई
वाकई विश्वास नहीं हो पा रहा कि वो शख्स जिसके नाम से ग़ज़ल की महफ़िल गुलज़ार थी वो चला गया.... आप खुशनसीब हैं जो काफी वक्त उनके साथ गुज़ार सके. इस पोस्ट का आभार कि उनके आखिरी क्षणों को आपने हम तक पहुँचाया
जगजीत सिंह वाकई अमर रहेंगे
स्याह आसमान में आफ़ताब के रोज बदलते हुए मिजाज़ को देखने जाता हु
कुछ दिनों से देख रहा हु एक बड़ा सा नया सितारा मेरी छत से...
गुनगुनाता कुछ रेशमी लफ्ज़...
चाँद के करीब ये सितारा
बहुत दिलकश हैं
माँ कहती थी जो हमसे हमेशा के लिए दूर चले जाते हैं वो तारा बन जाते हैं
मखमली आवाज़ का मालिक कही वही तो नहीं ये सितारा
जग जीतने का हुनर जानता था
उसकी नज्मे बेमिसाल
बहुत दिलकश हैं
हमने तो जगजीत सिंह को सिर्फ सुना ही था, आपने तो उनका साथ भी पाया था. आपकी अभिव्यक्ति में आपके दिल की आवाज की भी झलक है.
मेंरी ओर से भी ग़ज़लों के इस मसीहा को श्रद्धांजलि.
"जगजीत सिंह : एक संगीतमय श्रद्धांजलि"
भाईसाहब..इतना गहरा भाव और गहरी अभिव्यक्ति पढ़ने, आत्मसात करने के बाद शब्द नहीं मिलते क्या कहें..पहले कानों में पड़ती गज़ल्ख्वानी से जाना फिर जब से आपसे राब्ता हुआ तबसे आपकी जुबानी जाना..जगजीत साहब को जानने का बस यही सबसे नजदीकी ज़रिया साबित हुआ मेरे लिए तो..आप खुशकिस्मत हैं बेशक कि आवाज़ का मखमल परहन कर गए ये आला फनकार..हम तो मन ही मनन सोच के मुगालते में बहलाते रहे कि कभी काबिल बनेंगे कुछ काबिल कह पाने के..खैर उनकी आवाज़ और बेशुमार कलामों से निहाल होते रहेंगे और आपके ज़रिये उनके नूर को पाते रहेंगे. मेरा सलाम उन्हें और आप को भी...
Alok ji
एक अज़ीम शख्सियत के विषय में बहुत ही भावपूर्ण स्मरण है यह पोस्ट..... उनका जाना किसी व्यक्तिगत के जाने से कम नहीं....! श्रद्धांजलि
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