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Aalok Shrivastav

Tuesday, July 24, 2012

The Sunday Indian

Posted by aalok shrivastav at 8:21 PM 197 comments
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तआरुफ़ : इंडिया टुडे से साभार

सृजन संवाद - एक रौशन उफ़क़ पर : “जो कविता बनी-बनाई ज़मीन तोड़ती है वो अलग पहचान बनाती है और सम्मानित होती है." पिछले दिनों ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव को ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’ देते हुए प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने जब यह कहा तो आलोक की हाल की उपलब्धियों पर बरबस ध्यान चला गया. उनका पहला ही ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' जिस तरह चर्चित और सम्मानित हुआ है उससे साफ़ है कि उन्होंने नई ज़मीन बनाई है. मप्र साहित्य अकादमी पिछले दिनों उन्हें 2007 का 'दुष्यंत कुमार पुरस्कार' देने का ऐलान कर चुकी है. इसी संग्रह के लिए 'भगवत शरण चतुर्वेदी पुरस्कार' और 'हेमंत स्मृति कविता सम्मान' पिछले वर्ष ही उनके खाते में जुड़ चुके हैं. ख़ुद नामवर सिंह ने हंस के एक अंक में उन्हें–“दुष्यंत की परम्परा का आलोक” बताया है. ग़ज़ल की नई शैली में इज़ाफ़ा करने वाली आलोक की ग़ज़लों के कई शेरों में प्रभावित करने का ज़बरदस्त माद्दा है. मिसाल उनके यह चर्चित शेर हैं–‘घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे/चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा. बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुईं,तब-/मैं घर में सबसे छोटा था,मेरे हिस्से आई अम्मा.’ आलोक की ग़ज़लों की भाषा ख़ालिस हिंदुस्तानी है. वे कहते हैं- “मैं जिस ज़बान में बोलता-बतियाता हूं, उसी ज़बान में ग़ज़लें कहने की कोशिश करता हूं.” परिवार के साहित्य-सुधी माहौल को वे रचनात्मक ऊर्जा मानते हैं और माता-पिता की स्मृतियों का शिद्दत से जीते हैं. इसीलिए उनके पास रिश्तों के मर्म और महत्व को ग़ज़लों में पिरोने का अद्भुत कौशल है. अली सरदार जाफ़री की 'नई दुनिया को सलाम', निदा फ़ाज़ली की 'हमक़दम' और बशीर बद्र की 'अफ़ेक्शन' व 'लॉस्ट लगेज' जैसी काव्य-पुस्तकों का उन्होंने हिंदी में महत्वपूर्ण संपादन किया है. ख़ुसरो और ग़ालिब को बड़े शायर मानने वाले आलोक- फ़ैज़, दुष्यंत, बशीर बद्र, गुलज़ार और निदा फ़ाज़ली के मुरीद हैं. प्रगतिशील लहजे में रची-बसी उनकी नज़्मों से वे फ़ैज़ और निदा के स्कूल के ही छात्र नज़र आते हैं. ग़ज़ल-पाठ की उनकी अपनी ही एक संजीदा शैली है जो अत्यंत प्रभावशाली है और देश-विदेश में उन्हें एक अलग ख्याति भी दिला चुकी है. ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह जब उनकी ग़ज़ल अपने एलबम में गाते हैं या शुभा मुदगल उर्दू के महान शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म के साथ एलबम में पिरोती हैं तो इस युवा कवि का सहज ही एक अलग महत्व रेखांकित हो जाता है और यह सब उन्होंने मात्र अपनी 'ग़ज़ल-धर्मिता' के बूते हासिल किया है जबकि उनकी छोटी-छोटी मर्म-स्पर्शी कहानियों का पिटारा खुलना अभी बाक़ी है जिसकी बानगी हाल के वर्षों में हंस, कथन, साक्षात्कार और आउटलुक जैसी पत्रिकाओं में देखने को मिली है. वे इन दिनों अपनी कहानियों पर ही नए सिरे से काम कर रहे हैं. 30 दिसंबर 1971 को शाजापुर (मप्र) में जन्मे आलोक के जीवन का बड़ा हिस्सा मप्र के सांस्कृतिक नगर विदिशा में गुज़रा है और वहीं से उन्होंने हिंदी में एमए किया. 90 के दशक में टीवी धारावाहिकों और फ़िल्मों के लिए लेखन करने मुंबई भी गए जो रास नहीं आया तो विदिशा लौटकर 'रामकृष्ण प्रकाशन' का प्रबंधन-संपादन संभाला. जहां लगभग पांच वर्ष में उन्होंने डेढ़ सौ से ज़्यादा साहित्यिक-कृतियों को अपनी देख-रेख में प्रकाशित किया. उसके बाद कुछ समय 'दैनिक भास्कर' भोपाल में पत्रकारिता की और अब इनदिनों दिल्ली में टीवी चैनल 'आजतक' में सीनियर प्रोड्यूसर हैं. साथ ही अपनी रचनाशीलता से हिंदी ग़ज़ल को पुनर्स्थापित करने में जुटे हैं. गुलज़ार ने उनके संग्रह की भूमिका में लिखा है- “आलोक एक रौशन उफ़क़ पर खड़ा है, नए उफ़क़ खोलने के लिए, आमीन.!” -यश मालवीय View my complete profile

आमीन : ग़ज़ल संग्रह

आमीन : ग़ज़ल संग्रह

आमीन की समीक्षाएँ

  • डॉ. नामवर सिंह
  • नीरज की नज़र में
  • 'अगड़म-बगड़म' में आलोक पुराणिक
  • 'दैनिक भास्कर' में जयप्रकाश चौकसे
  • 'दैनिक जागरण' में यश मालवीय
  • 'कही अनकही' में डॉ. दुष्यंत

सम्पादित पुस्तकें

सम्पादित पुस्तकें
नयी दुनिया को सलाम : अली सरदार जाफ़री

अफ़ेक्शन : बशीर बद्र

हमक़दम : निदा फ़ाज़ली

लॉस्ट लगेज : बशीर बद्र

मान-सम्मान

  • पूश्किन सम्मान
  • दुष्यंत कुमार पुरस्कार
  • हेमंत स्मृति कविता सम्मान-2008
  • भगवतशरण चतुर्वेदी सम्मान-2008

नैट पर आलोक

  • 'अनुभूति' में ग़ज़लें
  • 'कविता कोश' में ग़ज़लें
  • विकिपीडिया पर तआरुफ़
  • हिंदी पथ

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