
मंज़िलें बेगानी हो सकती हैं, और रास्ता मुश्किल। लेकिन दिल में हौसला हो, जुनूं की इंतेहा हो तो फ़ासिले ख़ुद सिमटने लगते हैं। ज़मीन, बड़े अब्बा ग़ालिब ने अता की थी और लफ़्ज़ विरासत में मिले थे, सो कहीं जाकर ये ग़ज़ल हुई थी। कोई पंद्रह बरस पहले। आज आपसे बांट रहा हूं।
मंज़िलें क्या हैं रास्ता क्या है,
हौसला हो तो फ़ासिला क्या है।
वो सज़ा दे के दूर जा बैठा,
किससे पूछूं मेरी ख़ता क्या है।
जब भी चाहेगा छीन लेगा वो,
सब उसी का है आपका क्या है।
तुम हमारे क़रीब बैठे हो,
अब दवा कैसी, अब दुआ क्या है।
चांदनी आज किसी लिए नम है,
चांद की आंख में चुभा क्या है।
आज ये ग़ज़ल अपने मुक़द्दर पर इतराने लगी है। अमर जो हो गई है। ग़ज़ल के सरतार जगजीत सिंह जी ने इसे अपने नए एलबम इंतेहा में अपनी आवाज़ की रौशनी से नहला दिया है। और वीडियो में मुझे अपने साथ टहला लिया है। सो आज आपसे अपना वही सपना बांट रहा हूं।
आपका ही आलोक