कभी-कभी कुछ शे'र दफ़ीने की तरह हाथ लगते हैं. चमकते हैं, झिलमिलाते हैं. लेकिन उनकी क़ीमत का एहसास नहीं जागता. ऐसे ही तीन शे'र महीनों से ज़हन में गड़े पड़े थे. 30 सितम्बर को जबलपुर में जब ये शे'र, कवि भाई प्रदीप चौबे को सुनाए तो उन्होंने कान ऊमेठ कर कहा- 'अबे.. क्यों दबाए रखे हो इन्हें, जल्दी से ग़ज़ल मुकम्मल करो, तीनों शेर ज़ोरदार हैं.' शायरी में प्रदीप जी की बारीक नज़र से कौन वाक़िफ़ नहीं है. मैं तो यहां तक मानता हूं कि 'हास्य-कवि' के रूप में उनकी पहचान किसी दुर्घटना से कम नहीं. वर्ना ग़ज़ल पर उनकी पकड़, उनकी राय ऐसी, जैसे कोई उस्ताद मेहरबां हो जाए. तो हौसला-अफ़्ज़ाई की इसी रोशनी का हाथ थामे कल, बापू और शास्त्री जी के जन्मदिन की पूर्वसंध्या पर आईसीसीआर, दिल्ली द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में जब ये अशआर पढ़े तो यक़ीन कीजिए वो दाद मिली कि भाई प्रदीप चौबे का सबक़ याद आ गया. ग़ज़ल तो मुकम्मल हो जाएगी, फ़िलहाल शे'र समात फ़रमाएं-
कल रात सुना है अंबर ने, सिर फोड़ लिया दीवारों से,आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से.दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.शुक्रिया प्रदीप भाई.
18 comments:
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से
ये शेर आपके कुछ दूसरे मशहूर शेरों से भी आगे जाने वाला शेर है इसे संभाल कर रखियेगा, ज़माना ख़राब है ।
दफीना तो सचमुच आपके हाथ लगा है लेकिन इस दफीने की दौलत श्रोताओं को मालामाल कर देगी ।
बधाई
tum saale kunthit kyon kar dete ho. gazal to barabar naheen kah sakta, sonet likhne lagoonga
आलोक भाई,
बहुत बढ़िया। ब्लॉग पर अरसे बाद दिखायी दिए, और बेहतरीन तरीके से। वैसे, दो इक दिन नाराज रहेंगे वाला शेर बेहतरीन है,इसमें शक़ नहीं, लेकिन पता नहीं क्यूं लगता है कि ये आमीन में भी है.....
उठाकर देखता हूं अब पुस्तक
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से
-ओह!! क्या गज़ब अंदाज है बात कहने का. ये शेर तो उतर गया दिल में. बहुत उम्दा.
गज़ल पूरी होने का इन्तजार है. शुभकामनाएँ.
Apke es fan ko Puri Gazal ka Intzar hai...
प्रदीप भाई को हमारी ओर से भी ढेर सारा शुक्रिया। यदि वो आपके कान नहीं उमेठते तो जाने कब तक हमें इन अशआरों से महरूम रहना पड़ता। अजी खुद देखिए, लोग जिस चांद को सिर्फ महबूब और महबूबा के रूप में देखते हैं, उस चांद को आपने बाबूजी और सितारों को बच्चों के रूप में देखा है। जाहिर सी बात है, जब गजल की शुरूआत में बाबूजी और बच्चे आ गए तो अब बाकी शेरों में पूरा परिवार आ जाएगा और गजल पूरी हो जाएगी। अब जल्दी से नई गजल पड़वा दीजिएगा। नहीं तो..........प्रदीप भाई जिंदाबाद......................
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
यह शे'र खुद में एक मुकम्मल ग़ज़ल है ,... पारिवारिक रिश्तों पे जिस तरह के शे;र आपने कहे हैं उसके लिए कुछ कह पाना नामुमकिन हो जाता है .... बहुत बहुत बधाई इन चाँद शे'रों के लिए पूरी ग़ज़ल का इंतज़ार रहेगा...
आपका
अर्श
गज़ब के शेर हैं तीनों वाक़ई दफ़ीने हैं. कोई शक नहीं.
"दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से."
आज की सच्चाई को उजागर करता शे’र। तीनों अश’आर मार्के के हैं। जमाना खराब है- हिफ़ाज़त से रखें :->
आलोक भाई, ग़ज़ल हो न हो, पर ये तीनों शे'र किसी भी अच्छी ग़ज़ल से कम नहीं हैं। ग़ज़ल की मुझे अधिक समझ नहीं है, बस जो अशआर दिल में खुद ब खुद उतर जाएं, मैं उन्हें ही अच्छे और मुकम्मल अशआर मानता हूँ। आपके इन तीनों शे'रों में यह ताकत है, न जाने क्यों आप इन्हें छिपाए हुए थे अब तक। प्रदीप जी का शुक्रिया कि उन्होंने आपको सही नसीहत दे और ये शे,र हमारे सामने आए। बधाई !
u came to jabalpur and didn't meet me. how come?
shiv
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
waah bahut khoobsurat sher
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
bahut sach
aapke sher waqayi kamaal hai
inhen padhwane ke liye shukriya
नमस्कार आलोक जी,
वाकई लाजवाब शेर हैं और ग़ज़ल में आकर चमक उठे हैं.
इन्हें हम सबको पद्वाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आह!
यकीनन दफ़ीने...
और हां सुबीर जी की बात का ध्यान रखियेगा
'दुनियादारी की कुछ रस्में…'
हम सभी का तो अनुभव है यह। पर आपके सिवा और कौन इसे इतने सहज-सरल मगर दिल छू जाने वाले अन्दाज़ मे व्यक्त कर पाता।
हर्दिक बधाई।
BHAI AALOK SHREEVASTAV JEE,
AAPKE TEENON ASHAAR BAHUT
KHOOB LAGE HAIN.BADHAAEE.
MATLA KE PAHLE MISRA MEIN
LAFZ " KAL" KE ISTEMAAL KEE WAZAH SE
WAZAN BADH GAYAA HAI.IS GAZAL KEE
BAHAR HAI--
21 12 22 22 2, 22 22 22 2
RAAT SUNA HAI AMBAR NE SIR,
FOD LIYAA DEEWAARON SE
ACHCHHE KHYAALAT KE LIYE EK
BAAR PHIR BADHAAEE.
bahut khoob
www.shivvani.blogspot.com
aap ki aameen jmili bahut din baad aapki rachna padne ko mili bahut hi achha laga
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