Wednesday, March 18, 2009

आरज़ू की आरज़ू में...

आबरू के बाद बारी आरज़ू की थी, या कहूं कि आरज़ू की आरज़ू में था। ज़हन तैयार था और क़लम बेताब। लेकिन इस वक्फ़े में आरज़ू से जुड़े कुछ तथ्य जुटाने में देर लगी। सो उसके लिए मुआफ़ करें।
सिराजुद्दीन अली खां उर्फ़ उर्दू के मशहूर शायर आरज़ू। शेख सिराजुद्दीन के चश्मे-चिराग़। पैदाइश शहर आगरा में हुई। पैदाइश का हवाला 1686 ई में मिलता है और आख़िरी सांस की धमक 1756 ई में आई, बताई जाती है। ख़ान आरज़ू आगरा के रहने वाले थे और शाह मोहम्मद गौस के वशं से थे। बाद में दिल्ली आ गए। जब दिल्ली आए तो उस वक़्त उम्र कोई 24 के क़रीब थी। बांके जवान। तालीम आगरा में ही पूरी कर चुके थे सो उसके लिए दिल्ली का मुंह नहीं ताका। दिल्ली से बेपनाह मुहब्बत थी बावजूद इसके शाहआलम के ज़माने में नवाब सालारजंग के साथ लखनऊ चले गए, वहीं आख़िरी हिचकी ली लेकिन दिल दिल्ली से लगा था सो ख़्वाहिश के मुताबिक़ यहीं दफ़्नाए गए।
फ़ारसी के उत्साद और अपने अहद के मशहूर शायर आरज़ू 14 बरस की उम्र से ही शौक़े-शायरी में डूब गए थे। ज़्यादातर फ़ारसी में ही कलाम कहते थे लेकिन इन्होंने उर्दू को ऐसे-ऐसे शागिर्द दिए जिन्होंने उर्दू का आसमान की ऊंचाइयों से रिश्ता क़ायम कर दिया। आरज़ू के शागिर्दों में महज़ एक नाम सैकड़ों पर भारी है- मीर तक़ी मीर।

हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए,
उनकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए।

मीर के इस शे'र सा ही हाल था शागिर्दों का अपने उस्ताद के लिए। ख़ान आरज़ू के लिए। आरज़ू का भी अपने शागिर्दों से लगाव कम नहीं था। उनके शागिर्दों में एक नौजवान था। ख़ूबसूरत नौजवान। किसी वजह से कुछ रोज़ वो आरज़ू से मिलने नहीं आया। एक रोज़ आरज़ू राह में कहीं बैठे थे कि अचानक वो नौजवान उधर से गुज़रा। उस्ताद से निगाहें चार हुईं। बुलाया। मगर वो किसी ज़रूरी काम से भागा जा रहा था, रुका नहीं। उस्ताद मायूस हो गए और फ़र्माया-

ये नाज़, ये तौर, लड़कपन में तो न था।
क्या तुम जवान होकर बड़े आदमी हुए !?

14 comments:

Unknown said...

रूचिकर लगी ये जानकारी । वैसे थोड़ा बहुत पढ़ा था मैंने । आपको धन्यवाद ।

नीरज गोस्वामी said...

आज आप के ब्लॉग पर आ कर तबियत प्रसन्न हो गयी...पूछिए क्यूँ? वो इसलिए की हम हुज़ूर की कलम के खासे दीवाने हैं, इत्तेफाकन करीब पांच साल पहले आप की एक ग़ज़ल इन्टरनेट पर पढ़ी थी....वो ही...."ना काग बोले वाले वाली... " तब से आपकी शायरी के मुरीद हो गए... और आपकी "अम्मा" और "बाबूजी" वाली ग़ज़लों ने तो पागल ही कर दिया.... ढूंढ ढूंढ कर आपको पढ़ा और सौभाग्य से आपकी किताब "आमीन" जब जयपुर में मिली तो ख़ुशी के मारे बांछें खिल गयीं...मेरा भी एक ब्लॉग है http://ngoswami.blogspot.com जिस पर कभी कभार जो दिल में आता है लिखता हूँ, पढने वाले खुश होते हैं तो उनको देख खुश हो लेता हूँ..उसी ब्लॉग पर आप की इस किताब का भी जिक्र किया था...उम्र में आपसे बड़ा हूँ लेकिन लेखन में आपके सामने एक दुध-मुंहा बच्चा ही हूँ...घुटरुन चलत रेणू तनु मंडित जैसा..."
आपसे गुजारिश है की "आमीन" के बारे में मेरी पोस्ट पर एक निगाह डालें और उस पर आयी प्रतिक्रियाओं को भी पढें...आभार मानूंगा...

Pls click at this link:

http://ngoswami.blogspot.com/2009/01/4.html

नीरज

Nitin said...

मैं तो सिर्फ यही कहूंगा की आरज़ू के बहाने आपका ब्लॉग पढऩे की मेरी आरजू़ पूरी हो गई। आप विदिशा आकर चले गए और हमारी मुलाकात भी न हो सकी। वाकई, कभी-कभी काम से आशिकी बहुत तकलीफदेह लगती है। फिर सोचता हूं कि करे चलो, आशिकी का यह अंदाज भी ओरों से कुछ अलग मजा देता है। खैर, आरजू साहब के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।

गौतम राजऋषि said...

आपकी कलम के तो आमीन से ही दीवाने हो रखे हैं...और आर्ज़ू पर ये जानकारी खूब लगी।
शुक्रिया सर

नीरज गोस्वामी said...

आलोक जी
टिप्पणी के लिए शुक्रिया. आप जैसे शायर के बारे में कुछ लिख सका मेरे लिए इतना ही काफी है.
आपने वादा किया है की :
तुम मुझे रोज़ चिट्ठियां लिखना,
मैं तुम्हें रोज़ इक ग़ज़ल दूंगा।
मैं ग़ज़ल पाने के लिए आपको दिन में एक नहीं दस चिठ्ठियाँ लिखने को तैयार हूँ...मुझे मालूम है आपके लिए इतनी ग़ज़लें भेजना दुष्कर काम होगा, और मैं नहीं चाहता की मुझे अंत में "गज़ब किया तेरे वादे पे एतबार किया...." वाली ग़ज़ल गानी पड़े....आप तो मेरे ब्लॉग पर आते जाते रहने का वादा कर लें इतना ही काफी है बस.
नीरज
http:ngoswami.blogspot.com

सुभाष नीरव said...

भाई आलोक जी, आरज़ू जी के बारे में जानकारी भरी आपकी यह छोटी -सी पोस्ट दिलचस्प लगी। आपकी ग़ज़लों के तो हम दीवाने हैं ही, अब आपका ब्लॉग भी देखे बग़ैर नहीं रहा जाता। जब से आपने अपना ब्लॉग शुरू किया है, मैंने तभी से उसका लिंक अपने सभी ब्लॉग्स में देना प्रारंभ कर दिया था। पिछ्ली 17 मार्च को जय जय वंती कार्यक्रम में आपका ब्लॉग पाठ था, मैं यह सोच कर गया था कि इस बहाने रू ब रू बात भी हो जाएगी, पर आप न जाने कब उड़न छू हो गए। जानता हूँ आप बहुत व्यस्त रहते हैं, तभी ऐसा किया होगा। खैर ! आपकी नई ग़ज़लों और नई पोस्टों का इंतज़ार तो बना ही रहेगा।
-सुभाष नीरव

शेरघाटी said...

भाई शे'र यूँ है:
ये नाज़ ये गुरूर बचपन में तो न था
क्या तुम बड़े हुए तो बड़े आदमी हुए!

ganesh parte said...

Alok je me koi sayer nhi ho par ghazle bhut sunta ho mujhe ye jankari bhut acchi lge thanks alokje

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