और इस तरह एक ग़ज़ल का सिलसिला, और पूरा हुआ...
यार, सुना है अंबर ने सिर फोड़ लिया दीवारों से,
आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से.
लफ़्ज़ों की लच्छेबाज़ी पर हमको कब विश्वास रहा,
लेकिन आप कहां समझे थे, दिल की बात इशारों से.
मन में पीड़ा, आंख में आंसू, कभी-कभी ज़ख़्मों के फूल,
ऐसे तोहफ़े ख़ूब मिले हैं, अवसरवादी यारों से.
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
आपकी दुआओं का शुक्रिया.
Tuesday, October 27, 2009
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30 comments:
आलोक जी नमस्कार,
आखिरकार ग़ज़ल पूरी हो गयी बधाई आपको भी ,.. ग़ज़ल का मतला जीस तरहसे खूब और खुद बात कर रहा है इसके क्या कहने मगर यह शे'र आपके खुछ चुनिन्दा शे'रो के साथ बहुत दूर तलक जाने वाला है ... पर एक शिकायत है आपसे जनाब अभी तक आमीन नहीं मिल पाया मुझे ,या तो पब्लिशर्स का नो या कुछ बता दो आप जिससे मेरी खावोहिशों की आमीन से आमीन पूरी हो ...
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
यही शे'र बहुत दूर तलक जाने वाला है ...
बधाई स्वीकारें,
अर्श
कमल प्रकाशन वालों का न . नहीं मिल रहा है ...
दादा खूब लिखा है... वैसे एक बात कहूं तो आपकी ये गजल मीडियावालों पर भी खूब सटीक बैठ रही है...
दिलो दिमाग पर छा गई यह गज़ल, आलोक भाई.
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
bahut achha likha hai... bahut khoob
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से...
लाजवाब मतले के साथ मुकम्मल ग़ज़ल ........... बस ग़ज़ल ही नहीं हमारी पढने की चाह की भी पूरी तरह से संतुष्टि हुयी है ....... बहुर ही कमाल के शेर कहे हैं आपने .......... आप पास बिखरे पलों को बुन कर रची लाजवाब ग़ज़ल .........
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
कमाल का शेर..आलोक जी से शिकायत है की वो अपने ब्लॉग पर बहुत कम ग़ज़ल पोस्ट करते हैं...लेकिन इंतज़ार का फल मीठा होता है...
नीरज
अर्श भाई 'आमीन' की जानकारी के लिए आप मेरी पोस्ट पर क्लिक करें...
ngoswami.blogspot.com/2009/01/4.html
वैसे इस पुस्तक को राजकमल प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है.
.
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
बहुत पैनी बात, दिल के जज़्बात उडे़ल दिया है इन दो लाइनों में!!
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
vaah!
Bahut Khoob!!
बहुत सुंदर गजल है
gazal padi bahut anand aaya badhai!
avnishuniyal
Waah
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
sunder shabdon mein bhav ko jeevan pradan kiya hai.
shubhkamanon sahit
Devi nangrani
'लेकिन आप कहां समझे थे…'
बहुत ख़ूब! वैसे भी अगर आपके दिल की बात इशारों में समझ लें तो इतनी बेहतरीन ग़ज़लें कैसे मिलेंगी सुनने को।
हार्दिक बधाई।
अमर
Alok ji bahut sundar likha hai....really beautiful
gazal poori hona bhi balaa ka santosh de jaataa he, aour jab vo khoobsoorat ban padti he to gazab ka aatmaanand prapt hota he. ese aalam me hamane bhi padhh kar poora poora maza liya/
यार, सुना है अंबर ने सिर फोड़ लिया दीवारों से,
आख़िर तुमने क्या कह डाला, सूरज, चांद, सितारों से....
gazal padhh kar hamara haal esa nahi he..,
दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
wah, bemisaal/
>दो-इक दिन नाराज़ रहेंगे, बाबूजी की फ़ितरत है,
>चांद कहां टेढ़ा रहता है, सालों-साल सितारों से.
बहुत अच्छे आलोक भाई ......
एक खूबसूरत गज़ल के लिये शुक्रिया ...
Bhaisab,
jese apki muskan kisi devpurush ki tarah apni vinamrta se gourvanvit hoti he vese hi 'Ameen' bhi apni visheshtao se ussi garima ko chunar banakar odne vali he... Shubechae...
apka anuj
Rahul Ranajn Nigam
आलोक जी, बहुत ख़ूब कही
आपका क़ायल तो पहले से था... आपकी इस ताज़ा ग़ज़ल ने आपके कुछ और करीब ला खड़ा किया... इस भीड़ में भी तन्हा होकर कुछ यही कहने को जी करता है...
वक्त के साथ बदलते जाना
यही आज की फ़ितरत है...
रिश्तों की गरमाहट गुम है
शब्दों का मतलब बदला है
भाव खो गए, दूर हो गए
अपनों का मतलब बदला है
भाषा की बाजीगरी सीखना
यही आज की फ़ितरत है...
आपकी अगली ग़ज़लों का इंतज़ार है...
अतुल सिन्हा
sundar likha hai janaab, bohot sundar.
मधुर शब्दों में लिखी हुई एक
भावपूर्ण रचना है . सीधे
मन को छू लेनेवाली .
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
आलोक जी , नमस्कार !!
इस एक शेर ने मुझे
दाद के लिए मजबूर किया
और...
साथ में बे-लफ्ज़ भी ....
शायद...
कम-इल्मी आड़े आ रही है
पूरी ग़ज़ल ...बस कमाल है
मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आपका बेसब्री से इंतजार रहता है आलोक जी...
इस ग़ज़ल पर तो सब गुरूजनों ने कह ही दिया है। मेरी भी करोड़ों दाद स्वीकारें...
ऊपर ग़ज़ल के कुछ भक्त-जन "आमीन" के न मिल पाने की शिकायत कर रहे हैं{वैसे इस बात पे हैरान हूँ}...आप क्यों नहीं "आमीन" की ग़ज़लें एक-एक कर यहाँ लगा देते हैं। वैसे तो आपकी तमाम ग़ज़लें उपलब्ध हैं ही कविता-कोश पर, फिर भी यहाँ देख कर आपके हम जैसे फैन्स को अच्छा ही लगेगा।
शुभकामनायें !
gazal padh kar lagta hai chaand sitaare aakash sb aap zamee par le aaye hain hum logo ke padhne -chuune ko.yun lagta hai mahboob ki pahunch chaand sitaaro tk hoti hai.bhut hi khoobsurat gazal hai ab to aameen dhoondhni hogi
Alok ji
when i was in up administrative academy then i read AAMIN...in library.from the day when i read that book i was eager to know u and contact u...but unfortunatlly it was not executed....Now the time when i found u on blog i could not restrict to my self to disclose my expression.....Kindly accept my good wishes for ur success in field of journalism as well as GHAZALS>>>>>>
आलोक जी आपकी 'आमीन' हेमंत foundation के समारोह में अंशों में सुनी और अब भी इंतज़ार है संग्रह का
बहुत मुतासिर हूँ आपकी शायरी से ..खूब सजे है ये आश्यार
मन में पीड़ा, आंख में आंसू, कभी-कभी ज़ख़्मों के फूल,
ऐसे तोहफ़े ख़ूब मिले हैं, अवसरवादी यारों से.
दुनियादारी की कुछ रस्में, धड़क रही हैं रिश्तों में,
लेकिन वो जो अपनापन था, रूठ गया परिवारों से.
दाद में...
दिल के चमन में ज़ख्मों के जो फूल खिले हैं आज अभी
लगता है खुशबू का दरिया उमड़ आया गुलज़ारों से
देवी नागरानी
अलोक जी,
प्रणाम.
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया. यह गज़ल तो बहुत ही अच्छी है...
आपको वैसे जानता हूँ. कुछ महीने पहले राकेश खंडेलवाल जी हमारे घर आये थे तो आपके बारे में बात हुई थी.
awesome .. impressed!
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