Saturday, September 25, 2010

दो पवित्र आत्माओं का पत्र

प्रिय चिरंजीव,
आयुष्मान भव।
अत्र कुशलम् तत्रास्तु। पितृ-पक्ष में अपने लिए तुम्हें श्रद्धा पूर्वक तर्पण-अर्पण करते देखा। बहुत सुख मिला। वह सुख जो तुम्हारे जन्म के समय मिला था। तुम्हारी नर्म-मुलायम हथेलियों के स्पर्श से पुलकित हुआ था। वह सुख जो पहली बार तुम्हें पइयां-पइयां चलते देखकर आंखों से छलका था। जो तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होते देख गौरव में बदला था। वह सुख जो तुम्हारी व्यस्तता बढ़ने के साथ-साथ घटता गया था। वही सुख तुम्हें यूं तर्पण-अर्पण करते देख, हमारे हृदय में फिर से पांव पसार गया है। हम तो अब एक शून्य में अटके हुए हैं और तुम जीवन-कथाएं लिख रहे हो। यदि समय मिले तो हमारी इस व्याकुलता का उत्तर भी लिखना कि क्यूं हम जैसे माता-पिता को मरणोपरांत ही मिलता है वह आदर-समर्पण जिसके हम जीते-जी अधिकारी थे। क्यूं उम्र के अंतिम सोपान पर हम एकाकी हो जाते हैं। किसी आश्रम, देवालय या घर के किसी किनारे-कमरे में सिमट जाते हैं। अपने ही समय में बीते हुए समय-सा हो जाते हैं। जीवन में अनगिन प्रसंग बनाए फिर भी हमने अपना अप्रासंगिक होना भोगा।? हालांकि किसी ने हमारे दर्द को शब्द दिए, तो किसी ने अपनी संवेदना -
जाती हुई धूप संध्या की सेंक रही है मां,
अपना अप्रासंगिक होना देख रही है मां। (1)
प्रश्न कई घुमडे हैं मन में। कुछ बौने हैं और कुछ विकराल। सोचते हैं कि क्या इसी को हमने अपना संसार माना था। अपने संस्कार माना था। यदि यही हमारे संस्कार थे तो यह मात्र श्राद्ध तक ही क्यूं ठहर गए। आचरण में क्यूं नहीं उतरे। हमने तो सुना था -
एक अजाने स्रोत से निकली हुई धारा,
अनवरत बहती है तब विस्तार पाती है। (2)
यह कैसा विस्तार हुआ जो सोलह दिन में सिमट कर रह गया है।क्या तुम अपने बेटे को यह बता सकोगे कि हम कितने अकेले थे उस वीरान कमरे में, जिसमें घर का शायद ही कोई आता-जाता था। महीनों तुमसे बतियाने को तरसे थे हम। अलबत्ता, कोने वाले उस कमरे की खिड़की से तुमको घर आते-जाते देखा करते थे। कितना बदल गया है समय, सोचा करते थे। एक समय था जब तुमको पल भर की दूरी स्वीकार नहीं थी। 'सोते समय अपना हाथ हमारे ऊपर रखना, मुंह भी सारी रात हमारी तरफ़ ही करना।' सोने से पहले तुम्हारी सारी तुतली-शर्तें हम नींद में भी पूरी करते थे। फिर रोते-रोते वह आलम भी देखा कि- 'एक नज़र ठहरे बेटे की, चलते-चलते हम पर भी।' हम थक गए तो मन तुम्हारी दुआओं में चलने लगा। मचलने लगा। उम्र की थकान के बावजूद आशीष निकलता रहा। कहीं पढ़ा कि -
थके पिता का उदास चेहरा, उभर रहा है यूं मेरे दिल में,
कि प्यासे बादल का अक्स जैसे, किसी सरोवर से झांकता है। (3)
वह थके पिता की तलाश ही थी जो एक बूंद जल के लिए बादल की तरह तुम्हारे सरोवर में झांक रही थी- 'कि कब तुम पिघलो और हमें तृप्ति मिले।' मगर हमारी प्यास, प्यासी ही रही। वह सूखा कंठ आज भी चुभता है। उसी चुभन और सवालों को लेकर शून्य में भटक रहे थे कि तुम्हें तर्पण-अर्पण करते देखा, तो बहुत सुख मिला। जिस श्रद्धा और समर्पण को हम तरस रहे थे। उसी प्रेम के सारे बादल झर्झर करके बरस रहे थे। काश हमारी आत्माओं को यह तृप्ति, जीते-जी ही मिल जाती।
कवितांश : 1. यश मालवीय, 2. आनंद 'सहर', 3. आलोक श्रीवास्तव।

14 comments:

Anonymous said...

Good one dear.

Alok
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चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

सही है, मरने के बाद जितना रूदन होता है, काश, वह जीते-जी नहीं देख पाते क्योंकि तब उनकी कद्र नहीं होती:(

कडुवासच said...

...saarthak abhivyakti !!!

ZEAL said...

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Very touching !---You made me emotional .

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Unknown said...

पर आलोक जी आज के व्यस्त समय में। चाहे व्यक्ति नौकरी पेशा हो या व्यवसायी। चंद घंटे घर पर गुजार पाता है। स्वजनों के तो समय कम ही निकाल पाता है, लेकिन जितना भी निकालें इनकी श्रद्धा के लिए बहुत है। उसे पता नहीं पड़ता बच्चे कब छोटे से बड़े हो गए। (कृपया यह सोचकर अन्यथा न लें कि मैं आपकी बात का अपोज कर रहा हूँ)बहुत अच्छी पोस्ट!

सुनील गज्जाणी said...

alok jee
namaskar 1
aapa aalekh achha laga , chahe saamy ktna bhi mile agar man mutabik kaam ho jaaye to sukoon prapt ho jaata hai ,
saadar1

सुभाष नीरव said...

आलोक जी, आपकी यह पोस्ट पढ़कर आँखें भीग आईं। कारण वृद्धजन मेरी संवेदना का केन्द्र रहे हैं और अपनी अनेक कहानियों में उनके दुख, उनकी उदासी, उनके अकेले रह जाने की पीड़ा को आवाज़ देने की मैंने भी की है।
ऐसी दिल को छू लेने वाली पोस्ट पढ़वाने के लिए आपका धन्यवाद !

BrijmohanShrivastava said...

deepawali aur yam dwitiya ke parv par hardik badhai aur shubh kamnaayen

जयकृष्ण राय तुषार said...

very touching alokji

जयकृष्ण राय तुषार said...

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ManPreet Kaur said...

nice blog post..
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yanmaneee said...

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Anonymous said...

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